दूर से बजते नगाड़ों की आवाज़ सुनाई दे रही थी, खटिया पर लेटे लेटे बंशी ने बाहर देखा। लगता है कि नतीजा आ गया और जिस तरह से उसके पट्टी में उत्तर की तरफ़ नगाड़े बज रहे थे, उसे आभास हो गया कि नन्हे चच्चा जीत गए। थोड़ी दूर पर दूसरी खटिया में जोखू भी खाँसते हुए पड़ा था, आज उसकी तबीयत भी गड़बड़ लग रही थी।
"का हो जोखू, तबीयत कैसी है हो", बंशी ने कंहरते हुए पूछा।
"बुख़ार चढ़ रहा है और खाँसी भी लगता है, कल सुबह शहर चले जाएँगे", जोखू को बोलते बोलते फिर से खाँसी आ गई। घर के अंदर जोखू-बो काढ़ा बना रही थी, वह बाहर आ गई।
"पानी लाएँ का सोनू के पापा", उसने जोखू को देखते हुए दूर से ही पूछा। आज भी वह जोखू को नाम से नहीं बुलाती है, हालाँकि अब उसकी पीढ़ी की कुछ लड़कियां अपने शौहर को नाम से बुलाने लगी हैं।
"ले आओ और अदरक भी काट के ले आना, खाँसी से राहत मिल जाएगी", जोखू ने खटिया पर बैठते हुए कहा।
अब नगाड़े की आवाज़ काफ़ी नज़दीक आ गई थी, बंशी किसी तरह खटिया से उठकर बाहर जाने का उपक्रम करने लगे। आख़िर इसी के लिए तो वह अपना पूरा कुनबा लेकर महानगर से गाँव आए थे।
"बाहर मत जा, सब लोग अंदर आएँगे", जोखू ने कहा तो बंसी वापस खटिया पर ढह गए।
गाँव में पिछले तीन बार से चुनाव में आरक्षण के चलते उनके पट्टी से ही लोग खड़े होते थे। पहले तो सिर्फ़ बड़ी जाति के लोग चुनाव लड़ते, परधान बनते और फिर पाँच साल बाद दुबारा यही सब होता। जितने लोग परधान बने, उन सबका घर पक्का हो गया और उनके दरवाज़े पर एकाध गाड़ी भी खड़ी हो गई। लेकिन बड़ी जाति के लोगों के परधान बनने पर उनके पट्टी में में फ़र्क़ बस इतना होता कि बदहाली थोड़ी और बढ़ जाती और कुछ नए घरों पर ताला लटक जाता, लोग रोटी और रोज़गार के लिए गाँव से बाहर पलायन कर जाते। आज की तारीख़ में कम-से-कम 25 घर ऐसे थे जहाँ के सभी लोग महानगर जा चुके थे और सिर्फ़ शादी बियाह और परधानी के चुनाव में घर आते।
"अरे का हो बंसी काका, ल लड्डू खा, नन्हे चच्चा जीत गए", नन्हे के भतीजे ने आकर लड्डू का एक छोटा पैकेट उनकी तरफ़ बढ़ाया और फिर बिना उनके जवाब का इंतज़ार किए आगे बढ़ गया। बंसी ने डिब्बा खटिया पर ही रख दिया, उनकी इच्छा नहीं हो रही थी कि वह लड्डू खाते।
"अरे का भईल, लड्डू न खइबा का?,जोखू ने कहा तो उसकी आवाज़ में तंज़ साफ़ झलक रहा था। तब तक जोखू-बो पानी और कटा हुआ अदरक लेकर आ गई, उसने पानी जोखू को पकड़ाया और धीरे-से लड्डू का डिब्बा उठा लिया।
बंसी कुछ नहीं बोले, वापस खटिया पर लेट गए। उनको यह तो पता ही था कि जोखू इस बार गाँव आने पर ख़ुश नहीं था। वैसे भी पूरा देश इस समय महामारी के क़हर से जूझ रहा था और जोखू पूरे घर को मुश्किल में डालकर गाँव आने का ख़तरा नहीं लेना चाहता था।
लगभग दस बरस पहले बंसी भी गाँव छोड़कर महानगर चले गए थे और वहाँ पर एक बंगले पर चौकीदारी करने लगे थे। जोखू की माँ और जोखू को लेकर कुल तीन लोग थे और रहने का ठिकाना भी मिल गया था। जोखू की माँ भी घर से ही पापड़ बड़ी आदि बनाने लगी और थोड़ी-बहुत कमाई उससे भी होने लगी। गाँव के ही कुछ और लोग भी वहीं रहते थे और सबका मन लगा रहता था, बस साल में एकाध बार गाँव आना होता था।
जोखू कुछ साल तक तो किसी तरह से पढ़ाई करता रहा, फिर उसने भी एक फ़ैक्ट्री में काम करना शुरू कर दिया। अब आमदनी ठीक-ठाक होने लगी और बंसी का परिवार आराम से रहने लगा। दो साल पहले एक रात जोखू की माँ को बुख़ार आया और अगले सात दिन तक चढ़ता उतरता रहा। बाद में हस्पताल में जाने के बाद अगले दिन ही वह चल बसी। अब घर में सिर्फ़ दो प्राणी बचे, दोनों नौकरी करने वाले तो खाना बनाने का संकट आ गया। इसलिए तीन महीने बाद ही जोखू की शादी हो गई और घर के देखभाल के लिए एक औरत आ गई।
जैसे-जैसे इस महामारी ने अपना पाँव फैलाना शुरू किया, लोगों की नौकरियों पर संकट आने लगा। ऐसे में एक दिन बंसी को भी अगले दिन से काम पर नहीं आने का फ़रमान मिला तो वह मन ही मन रो पड़ा। लेकिन जोखू की नौकरी क़ायम थी तो खाने के लाले नहीं पड़े और फिर जोखू-बो ने भी अपनी सास वाला काम शुरू कर दिया। दिन बस इस संकट के टलने के इंतज़ार में बीत रहे थे और सबकी तरह बंसी भी इसी आस में जी रहे थे कि सब ठीक हो जाएगा।
दस दिन पहले ही गाँव से नन्हे चच्चा का फोन आया "का हाल हौ बंसी, सब ठीक हौ न"।
बंसी ने भी हामी भर दी "पाँय लागूं चच्चा, सब ठीक हौ इहाँ, उहाँ गाँव में सब ठीक बा न"।
"हाँ, इहाँ भी सब ठीक हौ लेकिन तोहरे परिवार का ज़रूरत हौ। अब तोंहके त पता हौ कि गाँव पर परधानी क चुनाव होत हौ अउर इ बार हम खड़ा हुई। पिछला परधान त गाँव ख़ातिर कुछ नाहीं कइलेस, अब हमहीं के कुछ करे के पड़ी", नन्हे चच्चा एक साँस में बोल गए।
बंसी हूँ हाँ करते रहे, चच्चा आगे बोलना शुरू किए "अब अगर तू लोग न अईबा त के हमार मदद करी, के हमके वोट देई। ए से तूँ फटाफट गाँव चल आवा। तोहके हमार परचार भी त करे के पड़ी"।
बंसी ने थोड़ा सोचा, फिर बोले "ठीक हौ चच्चा, हम आ जाईब"। उनको लगा कि वैसे भी वह घर पर खाली ही बैठे हैं तो गाँव जाएँगे तो कुछ मन बहल जाएगा।
"अरे तोंहके अकेले नाहीं आवे के हौ, पूरा परिवार लेके आवा। आख़िर तीन वोट हौ तोहार, सबकर आपन आपन लोग ए समय आवत हउअन", नन्हे चच्चा ने बात ख़त्म कर दी।
बंसी दिनभर सोचते रहे कि जोखू से चलने के लिए कहें या नहीं, वैसे भी जोखू गाँव से कोई मतलब नहीं रखता था। लेकिन अब बात उनके अपने सगे पट्टीदारी की थी, नन्हे चच्चा अगर परधान बने तो उसके लिए भी शायद कुछ बढ़िया ही हो।
शाम को जोखू घर आया तो बंसी ने बात छेड़ी "आज नन्हे चच्चा का फोन आया था, इस बार परधानी में खड़े हो रहे हैं"।
"अच्छा", जोखू ने कोई उत्साह नहीं दिखाया।
बंसी एक बार ठिठके, आगे कुछ कहें या नहीं। लेकिन बात कहनी भी ज़रूरी थी इसलिए फिर से बोले "चच्चा हम सब को गाँव बुलाए हैं, उनकी मदद करना हमारा भी फ़र्ज़ है"।
जोखू ने पलटकर देखा, उसकी आँखों में आश्चर्य और ग़ुस्सा था 'आपका दिमाग़ तो नहीं ख़राब हो गया है बाऊ, इस समय चारो तरफ़ महामारी फैली है और आपकी भी तबीयत अब ठीक नहीं रहती। अब ऐसे में हम गाँव जाने का सोच भी नहीं सकते, आप चच्चा से कोई बहाना मार दीजिएगा"।
जोखू की पत्नी भी तब तक पानी का गिलास लेकर आ गई थी। वह अमूमन इन सब बातों में अपनी कोई राय नहीं देती थी इसलिए पानी देकर वह चुपचाप खड़ी हो गई।
बंसी ने जोखू के पानी पीने का इंतज़ार किया और एक बार फिर बोले 'अरे तुम समझते नहीं हो, आख़िर पटिदारी का मामला है। हमको भी आज नहीं तो कल गाँव तो जाना ही है, उस समय क्या मुँह लेकर जाएँगे"।
जोखू ने कुछ नहीं कहा और कपड़ा बदलने लगा। कपड़ा बदलकर जब वह आया तो बंसी उसको ही देख रहे थे। उसे समझ में आ गया कि कुछ जवाब तो देना ही पड़ेगा तो उसने कहा 'न तो आप जाएँगे और न हम लोग, समझ गए न"।
बंसी का मुँह उतर गया, उनको उम्मीद तो थी कि जोखू को एक-दो बार कहना पड़ेगा लेकिन उनको ये भी उम्मीद थी कि वह आख़िर में मान जाएगा। अगले दो घंटे बेहद ख़ामोशी में बीते, रात का खाना भी बंसी ने आधे मन से ही खाया और वह जोखू और उसकी पत्नी को भी दिख गया।
सोते समय उसकी पत्नी ने बात छेड़ी "अगर बाऊजी कह रहे हैं तो उनकी बात मान क्यों नहीं लेते। अब बड़े हैं और गाँव समाज भी उनको ही देखना है, तुम्हारे मना करने से समाज में उनकी क्या इज़्ज़त रह जाएगी"।
जोखू भड़क गया 'तुम्हारा भी दिमाग़ फिर गया है क्या, ऐसे समय में कौन जाता है गाँव। अगर ग़लती से यह बीमारी लग गई तो मुश्किल हो जाएगा, वैसे भी बाऊजी कमज़ोर हो गए हैं आजकल"।
"वो तो ठीक है लेकिन उनको मना करना भी ठीक नहीं है। एक काम करो, आप चले जाओ गाँव, हम बाऊजी का ध्यान रख लेंगें", जोखू की पत्नी ने मनौती करते हुए कहा।
यह बात जोखू को ठीक लगी, वह दो-तीन दिन के लिए गाँव चला जाएगा और वोट देकर वापस आ जाएगा। उसने करवट बदल ली और सोने का उपक्रम करने लगा।
सुबह बंसी चुपचाप कुर्सी पर बैठे ऊपर ताक रहे थे, जोखू की पत्नी ने चाय दिया और पूछा "बाऊजी तबीयत तो ठीक है न, काहें उदास लग रहे हैं"।
बंसी ने चाय का कप पकड़ा और फीकी हँसी हँस दिए। कारण दोनों को पता था लेकिन उनकी आपस में इससे ज़्यादा कभी बात नहीं होती थी इसलिए बंसी ख़ामोशी-से चाय सुड़पने लगे। थोड़ी देर में जोखू आया तो उसे भी बाऊजी का लटका मुँह दिख गया। रात की बात उसे याद आई और उसने आवाज़ लगाई "अरे सुनो, मुझे भी चाय देना। अच्छा बाऊजी एक काम करते हैं, मैं गाँव चला जाता हूँ और चच्चा को वोट देकर आ जाऊँगा। ये ठीक रहेगा न?
बंसी को एक बार तो लगा कि ठीक ही है, जोखू गाँव जाकर वोट दे आएगा और चच्चा की बात भी रह जाएगी। लेकिन फिर उनको लगा कि वह नहीं जाएँगे तो चच्चा बुरा मान जाएँगे, वैसे भी उनके साथ के कुछ लोग इसी चुनाव के लिए गाँव जाने वाले थे। उन्होंने जोखू की तरफ़ देखा, वह चाय पी रहा था।
'ऐसा है जोखू कि यहीं से कुछ लोग गाँव जा रहे हैं और अगर हम नहीं गए तो चच्चा बुरा मान जाएँगे। आख़िर मेरे जाने में तुमको क्या दिक़्क़त है, चच्चा ने भी सबको बुलाया है"।
"आपकी तबीयत आजकल ठीक नहीं रहती है और ये महामारी भी फैली हुई है। ऐसे में गाँव जाना कोई समझदारी का काम नहीं है, आप बात को समझते क्यों नहीं?, जोखू ने उनको फिर से समझाने का प्रयास किया।
लेकिन बंसी जाने पर आमादा थे उन्होंने कह दिया "अगर हम नहीं गए तो हमारी तबीयत ज़्यादा ख़राब हो जाएगी। अरे गाँव में लोगों से मेल मुलाक़ात होगी तो मन बहल जाएगा हमारा"।
जोखू समझ गया कि बाऊजी बात नहीं मानने वाले हैं, ऐसे में अगर दोनों जाएँगे तो यहाँ उसकी पत्नी अकेले रह जाएगी और वहाँ गाँव पर भी भोजन कौन बनाएगा। इसलिए उसने हार मानते हुए कहा "ठीक है बाऊजी, बस चार पाँच दिन के लिए चलेंगे हम लोग और फिर आप हमारे साथ ही वापस आएँगे'।
बंसी के लिए इससे बढ़िया बात और क्या हो सकती थी, वह एकदम ख़ुश हो गए 'ठीक हौ, तोहरे संघे हम भी वापस आ जाएँगे"।
उधर जोखू अपने फ़ैक्ट्री गया, इधर बंसी ने गाँव चच्चा को फोन लगाया "पालागी चच्चा, हम लोग गाँव आ जाएँगे, आख़िर तोहरे परधानी का मामला हौ"।
अगले दिन पूरा परिवार गाँव के लिए निकल पड़ा, जोखू ने बाऊजी को भी मास्क पहनाया और ख़ुद भी पूरी सावधानी बरतते हुए गाँव चला। सड़क वही थी लेकिन लगता था जैसे उसका मिजाज़ ही बदल गया हो। कहाँ इस सड़क पर निकलने पर बस भीड़ ही भीड़ दिखाई पड़ती थी, चारो तरफ़ चिल्लाते हॉर्न, धुआँ उगलती गाड़ियाँ और एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में लगे लोग। लेकिन आज तो सब बदला हुआ था, भीड़ भी नहीं के बराबर थी और चिल्ल पों भी ग़ायब। ख़ैर पहले बस से, फिर टेम्पो से धक्का-मुक्की करते शाम होते होते वे लोग गाँव पहुँच गए। गाँव पहुँचते ही बंसी मुँह हाथ धोकर नन्हे चच्चा के यहाँ निकल गए।
"पालागी चच्चा, हम लोग आ गए। और सब कइसन चल रहा है, परचार तो ठीक हौ न?
नन्हे भी उनको देखकर ख़ुश हो गए, उनका तीन वोट पक्का हो गया था। उन्होंने भी हाथ जोड़कर नमस्कार किया और घर में आवाज़ लगाई 'अरे बंसी आए हैं, तनी चाय तो पिलाओ"। बाहर एक तरफ़ गोहरी पर बट्टी बन रहा था तो दूसरी तरफ़ दाल। कुछ लोग सलाद काट रहे थे तो कुछ बैंगन का चोखा बना रहे थे। कुछ खलीहर बीड़ी पीते हुए कुर्सी पर बैठे देश प्रदेश की राजनीति पर बहस छेड़े थे। उनमें से बहुत से लोग बंसी को पलग्गी करने के लिए खड़े हो गए तो कुछ लोग आकर हालचाल भी पूछने लगे। बंसी की सफ़र की थकान लगभग ग़ायब हो गई, आख़िर इसी के लिए ही तो वह गाँव आना चाहते थे। एक चीज़ सबमें कामन थी, किसी ने भी चेहरे पर मास्क नहीं लगाया था।
चाय पीते समय नन्हे चच्चा ने बंसी से धीरे-से कहा "बाक़ी लोग भी तोहरे पास वोट माँगने आएँगे, चालाकी से बात करना। किसी को अहसास न हो कि तोहार वोट हमको ही मिलेगा"।
लगभग साढ़े तीन सौ की आबादी वाले इस गाँव में तीन चौथाई पिछड़ी जाती के लोग थे। गाँव में तीन अलग-अलग पट्टी थी जिसमें पक्के घर वाले मकान ऊँची जाति वालों के थे। दूसरी पट्टी में यादव और कुनबी कोइरी थे जो बीच वाले थे, उनके पास खेती भी थी और कुछ धंधा भी करते थे। तीसरी पट्टी उनके लोगों की थी जिसमें अधिकांश घर बस किसी तरह से बने हुए थे। दो-चार अच्छे घर भी थे और उस घर से कोई या तो नौकरी कर रहा था या महानगर में अच्छा धंधा कर रहा था। वैसे तो ऊपर से देखने पर लगता था जैसे गाँव में बहुत शांति है, आपसी संबंध मधुर है लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं था। जातिगत वैमनस्य और किसी की तरक्क़ी पर जलना हर आम गाँवों की तरह यहाँ भी मौजूद था। और असली फ़र्क़ चुनाव के समय नज़र आता था जब ऊँची जाती के लोग चाहते थे कि पिछड़ी बस्ती से उनका कोई अपना आदमी ही परधान बने। और इसके लिए वह रुपया पैसा भी ख़र्चने को तैयार रहते थे। लेकिन अब समय बदल गया था और पिछड़ी जाति के लोग भी अपना महत्त्व समझने लगे थे। उनको पता था कि चूँकि उनमें से ही किसी को परधान बनना है तो वे भी चाहते थे कि कोई ठीक आदमी ही बने।
शहर में तो महामारी के चलते लोग थोड़ा सतर्क थे, मास्क वग़ैरा लगाते थे। लेकिन गाँव में तो जैसे उस महामारी का कोई ख़ौफ़ ही नहीं था। इसकी एक वजह तो यह थी कि जब पिछले साल यही महामारी पहली बार आई थी तो गाँवों में इसका कोई असर नहीं हुआ था। इसलिए लोगों को इस बार भी भरोसा था कि गाँव में इसका कोई असर नहीं होगा। बंसी ने तो उसी समय मास्क उतार दिया लेकिन जोखू ने अगले दिन भी लगाए रखा।
"का जोखू भैया, तबीयत ख़राब हौ का", एक गाँव के लड़के ने उसे टोका तो उसे आश्चर्य हुआ।
"हम त एकदम ठीक हैं, काहें पूछत हौ", उसने पूछा।
"अरे गाँव में कउनो महामारी न हौ, फिर इ बीमारन वाला मास्क काहें लगाए हो। पूरे गाँव में और कोई दिखाई देत हौ मास्क लगइले", उस लड़के ने हँसते हुए कहा।
ख़ैर उसने मास्क तो नहीं उतारा लेकिन उसे गाँव में कई लोग खाँसते और छींकते दिखाई दिए। उसने किसी से पूछा तो उसने बड़े आराम से जवाब दिया 'अरे मौसमी खाँसी हौ, दिन में एतना धूप और रात में ठंडी, एही से इ सब होत हौ"।
रात को जब बाऊजी आए तो उनको भी खाँसी हो रही थी। उसकी पत्नी ने काढ़ा बनाया और अदरक के टुकड़े खाने के लिए दिए जिससे कि बाऊजी कि खाँसी ठीक हो जाए।
"बाऊजी, थोड़ा अपना भी ख़याल रखिए, मुझे तो लगता है कि यहाँ भी महामारी फ़ैल रही है। अपने आपको लोगों से दूर ही रखिए", उसने बाऊजी के सर पर हाथ रखते हुए कहा। उनका सर हल्का गरम था लेकिन बाऊजी ने मुस्कुरा कर उसका हाथ हटा दिया "अरे मैं ठीक हूँ जोखू, बस मौसमी सर्दी खाँसी है, ठीक हो जाएगा"।
अगला तीन दिन चुनावी दौड़भाग में बीता, नन्हे चच्चा के अलावा पाँच और उम्मीदवार थे लेकिन असली मुक़ाबला नन्हे चच्चा और छुन्नन में ही था। तीनों दिन कभी एक प्रत्याशी उनके घर आता तो कभी दूसरा आता। जो भी आता, झुककर प्रणाम करता और सबका हालचाल भी पूछता। सभी रात को अपने यहाँ होने वाली दावत में आने का न्यौता ज़रूर देते और साथ में बँटने वाली दारू का भी इशारा कर जाते। बंसी ने अब दारू पीना लगभग बंद कर दिया था, और जोखू को इससे सख़्त चिढ़ थी। उसने अपनी पट्टी के कई घर इस दारू के चलते बर्बाद होते देखे थे इसलिए उसने दारू से तौबा कर ली थी। जोखू की पत्नी के आने के बाद बंसी को लगा कि अब पतोहू के सामने कभी जोखू ने दारू के लिए कुछ बोल दिया तो उनकी सारी इज़्ज़त धूल में मिल जाएगी। इसलिए उन्होंने भी दारू से दूरी बना ली थी। फिर चुनाव के दिन ख़ूब चहल-पहल रही और जब शाम को चुनाव ख़त्म हुआ तब सबको राहत मिली। उस रात बंसी जब घर पर सोए तो उनको तगड़ा बुख़ार आ गया और जोखू को भी हरारत महसूस होने लगी।
गाँव के बाज़ार वाले डॉक्टर से दवाई लेने के बाद कुछ देर तक तो ठीक रहता लेकिन बाऊजी को बुख़ार फिर आ जाता। धीरे-धीरे गाँव के कई लोगों को बुख़ार ने जकड़ लिया और हर घर के सामने खटिया पर छींकते लोग नज़र आने लगे। उसने वापस चलने के लिए कहा तो बंसी ने दो दिन और रुकने के लिए कहा "जब इतना दिन रुके तो दो दिन में रिज़ल्ट आ जाएगा, फिर चलेंगे। नन्हे चच्चा के जीत का नगाड़ा भी तो बजाना है"।
वह ख़ुद भी दवा लेता रहा और बाऊजी को भी खिलाता रहा। गाँव में न तो उस महामारी के लिए कोई टेस्टिंग की व्यवस्था थी और न ही कोई ऐसा हस्पताल जहाँ ज़्यादा बीमार होने पर किसी को भर्ती कराया जा सके। उसके लिए गाँव से बीस किमी दूर क़स्बे के हस्पताल में ही जाना पड़ता था।
जुलुस आगे बढ़ा और बंसी वापस खटिया पर लोट गए। जोखू भी पत्नी को खाने के लिए बोलकर वहीं टहलने लगा, कल सुबह ही यहाँ से निकल जाना है, उसके दिमाग़ में बस यही चल रहा था। हल्की खिचड़ी बनी थी जिसे खाने का मन नहीं था लेकिन बाऊजी को खिलाने के चलते उसे भी साथ-साथ खाना पड़ा। खाना खाकर दोनों लेटे ही थे कि नन्हे चच्चा के यहाँ से एक आदमी आया और अगले दिन के दावत का न्यौता दे गया।
"काल जीत के ख़ुशी में खस्सी का दावत हौ बंसी भैया, ज़रूर से आवा"।
रात को अचानक जोखू की आँख बाऊजी के कंहरने से खुली, उसने घड़ी देखी, रात के दो बज रहे थे। वह बाऊजी के खटिया पर गया और बाऊजी को उठाया। उनकी साँस बहुत तेज़ चल रही थी और ऐसा लग रहा था कि उनसे साँस लेते नहीं बन रहा है।
"बाऊजी, गहरी साँस लीजिए", वह घबरा गया।
उसकी पत्नी भी इतने में आ गई और दोनों मिलकर बाऊजी को साँस देने की कोशिश करने लगे। लेकिन बंसी की हालत देखकर उनको लगने लगा कि इनको तुरंत हस्पताल लेकर जाना पड़ेगा।
"मैं नन्हे चच्चा को बुलाता हूँ, इनको तुरंत हस्पताल लेकर जाना पड़ेगा", उसने घबराते हुए कहा। उसे भी हल्का बुख़ार था और कमज़ोरी भी थी। वह नन्हे चच्चा के घर भागा और थोड़ी देर बाद वहाँ से उनके लड़के को लेकर आया। पीछे से ड्राइवर भी जीप लेकर आ गया और दोनों ने बंसी को उठाकर जीप में लिटाया और शहर की तरफ़ चल पड़े।
इधर सुबह की पहली किरण निकली, उधर बंसी ने जीप में ही आख़िरी साँस ली। गाँव में भी तब तक जगाहट हो गई थी और नन्हे चच्चा के घर से कुछ लोग खस्सी ख़रीदने के लिए बगल के गाँव के लिए निकल गए। आख़िर आज उनकी परधानी में जीत का जश्न मनना था।