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Friday, February 16, 2024

अपने अपने सपने--

 बनारसी गईया चरा के लौटे और उनको चरनी पर बाँध के पीठ सीधा करने के लिए झोलंगी खटिया पर लेट गए. उस क्षेत्र में जैसे बाकी गाओं थे, वैसे ही उनका गाँव था. अब गाँव का नाम भले ही "सिकंदरपुर" था लेकिंन इतिहास के सिकंदर और पोरस से इसका कोई सम्बन्ध नहीं था. अब गाँव में लोगों के नाम भी तो ऐसे होते हैं जिनका वास्तविकता से दूर दूर तक कोई भी सम्बन्ध नहीं होता. मिसाल के लिए उनके सगे पट्टीदार थे "दरोगा", जिनका कद भी पांच फुट नहीं था और ऊपर से दमा के मरीज, जरा सा तेज चलें तो हांफने लगते थे. आस पास के गाँव भी कुछ ऐसे ही नाम के थे और शायद ही किसी गाँव से जुड़ी कोई कहानी हो. बहरहाल उनकी गाय बिलकुल सीधी थी और उसको चराने में कोई भी मशक्कत नहीं करनी पड़ती थी. सिवान में ले जाकर उसे छोड़ देते थे और कहीं पेड़ के निचे आराम से सुस्ताने लगते थे. कोई गाँव का आदमी उधर से निकल जाए तो फिर बतकही का दौर ऐसा चलता था कि समय का पता ही नहीं चलता था. गाँव में उनके सम्बन्ध ठीक ठाक थे और लोगों को उनकी जाती और सामर्थ्य के हिसाब से बनारसी इज्जत भी देते थे. 

मौसम का कुछ ठिकाना नहीं था, इस बार पानी महीनों से बरस नहीं रहा तो घाँस भी कम हो गयी है सिवान में, चारो ओर टहाटह गर्मी पड़ रही है. खटिया पर लेते लेते गमछी से माथे का पसीना पोंछते हुए बनारसी मेहरारू को आवाज़ दिए "अरे तनी एक लोटा पानी त पिलाओ रघुआ की महतारी, बहुत गरम है आज". फिर वह दरवाज़े पर नज़र दौड़ाये तो साइकिल नहीं दिखी, मतलब रघुआ कहीं निकला है. उनका माथा गरम हो गया, ई लड़का का पेअर तो घर में टिकता ही नहीं है, जब देखो तब हवा पर सवार रहता है.

"कहवां गायब हौ तोहार नवाब, अब ओके खेत बारी से कउनो मतलब नाहीं हौ, कम से कम गईया के ही चरा दिहल करत", पानी लेते हुए बनारसी मेहरारू से बोले. ऐसे समय अक्सर रघुआ की महतारी चुप ही रहती है, पता है कि न तो ई मानेंगे और न रघुआ.

"अरे ऊ बजारे गयल हौ, कुछ किताब ख़रीदे खातिर. अब ओकर मन पढ़ाई में लगल हौ, त पढ़ लेवे द ओकरा के", लोटा लेकर वापस जाते समय उनकी मेहरारू धीरे से बोली.

अब खुद तो पढ़े लिखे नहीं थे तो का ही कहते अपने मेहरारू से. मन एक तरफ शंकित होता तो दूसरी तरफ मान भी लेता कि रघुआ पढ़ने में मन लगाता है. उनके हिसाब से पढ़ने का मतलब था कि रघुआ किताब खोलकर बैठा रहे और कुछ बोल बोलकर पढता रहे. ख़ैर पानी पीकर थोड़ा ताज़ा हुआ मन तो बनारसी ने वहीं रखा चारा काट कर भूषा में मिलाकर नाँद में डाल दिया. फिर सब गायों को नाद पर बाँध कर झउआ उठाया और गोबर फेंकने चल दिए. गाय के चलते देसी खाद और ऊपरी का इंतज़ाम तो हो ही जा रहा है.

उधर रघुआ बगल के गाँव के सिवान में एक जगह पेड़ों की ओट में साइकिल खड़ा करके इंतज़ार कर रहा था. कॉलेज में पढ़ने के चलते उसे पता था कि आज वैलेंटाइन डे था और उसको भी कुछ देना था अपनी सरोज को. टी वी और अख़बार में एक हफ्ता पहले से ही इस नवके त्यौहार का खूब धूम धाम था और ऐसा लगता था जैसे यह त्यौहार नहीं होता तो लोग भला प्रेम कैसे करते. अब देने के लिए कुछ समझ में नहीं आया तो एक नए डिज़ाइन का अँगूठी खरीद लिया था उसने. अंगूठी सोने की तो नहीं थी लेकिन किताबों के लिए मिले पैसे होम हो गए उसमे. पेड़ के नीचे खड़े खड़े वह चारो तरफ देख रहा था वो कि कोई और तो नहीं देख रहा है. भले कितना भी बहादुर बने कोई लेकिन प्रेम मोहब्बत में डर तो लगा ही रहता था लोगों का, सबसे ज्यादा अपने परिवार का ही. दूर कुछ आहट हुई और उसने पलट के देखा, सरोज दुपट्टा ओढ़े उसकी तरफ आ रही थी. रघुआ को दिल वाले दुल्हनिया का गाना याद आ गया, लगा जैसे काजोल उसकी तरफ मुस्कुराते हुए आ रही है. जैसे ही वो करीब आई, उसने मुस्कुराते हुए कहा "तुम्हारे लिए कुछ गिफ्ट लाये हैं सरोज, आज के दिन का शगुन है". फिर उसने जेब से अंगूठी निकलकर सरोज को दिया और मुस्कुरा दिया.

"अरे ई का ले आये, लगता है एक तीर से दो निशाना साध रहे हो तुम", और लजाकर अँगूठी सरोज ने अपनी उंगली में डाल लिया. रघुआ तो माने सातवें आसमान पर पहुँच गया, अब तो मामला बिलकुल सेट हो गया है, वह मन ही मन सोचने लगा.

"का सोचने लगे, बहुत सुन्दर अंगूठी है, तुम्हारी पसंद बढ़िया है", एक बार चारो तरफ नज़र दौड़ाया सरोज ने और फिर एक बार हाथ हिलाकर चल पड़ी.

"तुमको ऐसे ही थोड़े न पसंद किया हैं हम", रघु मुस्कुरा कर बोला.

सरोज आगे बढ़ी तो रघु ने धीरे से पूछा "अब कब मिलोगी सरोज".

जवाब में सरोज मुस्कुराकर चली गयी, रघु उसको दूर तक जाते देखता रहा. फिर चारो तरफ देखकर रघु ने साइकिल उठाया और घर चल पड़ा. शाम ढल चुकी थी, अधिकांश लोगों के घर लालटेन और कुछ घरों में बल्ब जल गए थे. गाँव में बिजली आ चुकी थी और सड़क भी ठीक ठाक बन गयी थी. 

सरोज का घर पड़ोस के गाँव कनकनपुर में था, आस पास के गाँव एक जैसे ही थे. दोनों वैसे तो पिछड़े वर्ग से ही थे लेकिन फिर भी जाति का फ़र्क़ था. रघु जात के पावदान में सरोज से ऊपर था और इसीलिए सरोज थोड़ा निश्चिन्त थी कि कम से कम  उसके यहाँ ज्यादा बखेड़ा नहीं होगा. एक ही कॉलेज में पढ़ने के चलते और बस में अक्सर साथ आने जाने के चलते एक दूसरे के करीब आ गए थे. उसके पिताजी भी खेती बाड़ी में ही लगे रहते थे और माँ गाँव के अन्य महिलाओं की तरह चूल्हा चौके में ही अपने आप को खपाये रखती थी. वैसे तो उसके गाँव में इतनी उम्र में लड़कियों का पढ़ना लगभग मुश्किल ही था लेकिन उसके भाग्य से उसके मामा, जो कि पढ़े लिखे थे, ने उसको पढ़ाने के लिए उसके घरवालों को मना लिया था.  

रघु घर पर साइकिल खड़ा करके दलान में घुसा और तभी बनारसी ने टोक दिया "कहाँ इतनी देर तक घूमत रहे, पढ़ाई लिखाई तो मन लगाकर कर करत हो न आजकल". रघु कभी भी बनारसी से खुलकर बात नहीं करता था, बस हाँ हूँ करके निकल जाता था. आदतन आज भी हूँ कहकर वो घर में घुस गया, कपड़े निकाले और मुँह हाथ धोने लगा. मतारी ने खाने का पूछा तो थोड़ी देर बाद खाऊंगा बोलकर वह अपने खटिया पर बैठ गया. 

किताब में रखी सरोज की फोटो देखकर वो उसके सपनों में खो गया था. उसकी मतारी भी चूल्हे के पास से उसे देखते हुए उसके उज्जवल भविष्य के सपने में खोई थी और दुआरे बनारसी अपने झोलंगी खटिया पर लेटे लेटे अपने खेती और गईया के सपनों में खोया था. उधर सरोज भी रघु के सपने में खोयी थी तो उसके माता पिता उसके लिए अच्छे दूल्हे की उम्मीद लगाए हुए थे तथा उसके बेहतर ससुराल, जहाँ उनकी बेटी सुख से रहे, के सपने में खोये हुए थे. 

Wednesday, October 4, 2023

असर- लघुकथा

 आज बहुत दिनों बाद कमल को दिन भर बढ़िया सवारी मिली थी, उसे याद ही नहीं था कि पिछली बार कब उसे इतना पैसा मिला था. हाथ में आये पैसे को उसने तीन बार गिना तब जाकर उसे यक़ीन हुआ कि सचमुच उसके हाथ में इतना पैसा है. वैसे जबसे बैटरी वाला ऑटो आया है, लोग उसी से ज्यादा सफर करते हैं, सस्ता जो पड़ता है. आज तो अपनी महीनो पुरानी हसरत को वह पूरी करेगा, अंग्रेजी वाली पियेगा, कितने दिनों से बस देसी का पौआ ही ले पा रहा था. एक बार घर के लिए भी कुछ लेने का ख्याल दिल में आया लेकिन उसने झटक दिया कि कल देखेंगे. उसने ऑटो को मालिक के यहाँ खड़ा किया और बाहर निकला. 

बाजार में आते ही एक टी वी के दुकान के सामने भीड़ दिखी तो उसे लगा कि वही क्रिकेट आ रहा होगा. वैसे भी उसकी जिंदगी में इन चीजों के लिए कोई जगह नहीं थी. बस कभी कभी बीवी और तीन बच्चों को लेकर बाजार आ जाता था ताकि उनको कुछ दिला सके, लेकिन अक्सर खाली हाथ ही लौटना पड़ता था. वह एक बार दुकान के सामने रुका और उसने पूछ लिया "क्या हो गया, क्रिकेट आ रहा है का".

एक आदमी ने जवाब दिया "तुमको पता नहीं है, आज हमारा चंद्रयान चन्द्रमा पर पहुँच गया है".

उसने थोड़े गौर से टी वी को देखा, लोग खूब खुश होकर कुछ बात कर रहे थे. फिर एक तस्वीर दिखी जिसमें बहुत सी महिलाएं थीं. वहीं खड़े लोग बता रहे थे कि ये महिलायें वैज्ञानिक है जिन्होंने चंद्रयान के लिए काम किया है. उसे अपने स्कूल की याद आयी जहाँ उसने सूर्य, चन्द्रमा और ग्रहों के बारे में सुना था.

वह वहां से आगे बढ़ा, अंग्रेजी वाली दुकान थोड़ी दूर पर थी और वह उधर ही जा रहा था. अचानक उसकी नजर एक किताब कॉपी की दुकान पर पड़ी जहाँ उसके बेटी की उम्र की कुछ लड़कियाँ कुछ खरीद रही थीं. उसे याद आया कि पत्नी सुबह बेटी के लिए किताब लेने के लिए कह रही थी. थोड़ी देर वह वहीं खड़ा रहा, एक बार उसने अंग्रेजी वाली दुकान की तरफ देखा, फिर उसके कदम किताब की दुकान की तरफ बढ़ गए. 

Friday, July 28, 2023

कहानी--

"खर्र खर्र" की आवाज ने आज फिर शनिचरी देवी को जगा दिया, बाहर नजर डाला तो वही औरत बड़ी तल्लीनता से झाड़ू लगा रही थी. वैसे तो वह बहुत जल्दी ही उठ जाती हैं लेकिन कभी कभी आँख लग जाती है और आज भी लग गयी थी. फरवरी महीने के आखिरी हफ्ते में सुबह सुबह कुहासा देखकर उनको आश्चर्य होता है, कैसा तो मौसम हो गया है, गर्मी शुरू होने के समय भी ठण्ड पड़ रही है. खैर हलकी ठण्ड उनको अच्छी ही लगती है, वैसे भी पहले उनको कहाँ फ़र्क़ पड़ता था ठंडी और गर्मी से. साल के एक दो महीने छोड़कर उनको अलसुबह उठने की आदत थी, उनको ही क्या, उनके पूरे गांव को इसकी आदत थी. पर्दा लगाकर सोना उनके लिए जैसे क़ैद में सोने के बराबर था लेकिन इस शहर के उसूल कुछ अलग थे, वह भूल भी जाएँ तो घर का कोई न कोई सदस्य आकर पर्दा खींच ही देता था. और जिस दिन छोटी नातिन "कुहू" रात में पर्दा लगाने आ गयी, उस दिन तो मानों वह उनकी ही दादी बन जाती थी. कितनी सलाहें अपनी छोटी उम्र के लिहाज से वह दे जाती थी और उनको भी लगता था मानों वह भूल कर रही हों, भला सोने से पहले पर्दा गिराना कोई कैसे भूल सकता है.

कुहू का ख्याल आते ही उनके चेहरे पर मुस्कान तैर गयी, कितनी प्यारी बच्ची है बिलकुल छुईमुई जैसी. वह बार बार उनको टोकती है "दादी आप हमेशा साड़ी ही क्यों पहनती हो, मम्मी की तरह सूट क्यों नहीं पहनती आप? वह हंस कर टाल देती हैं, क्या बताएं उस बच्ची को. उनका सच कुहू स्वीकार ही नहीं करती है कि उनको साड़ी के सिवा कुछ भी पहनने नहीं आता, अपनी जिंदगी में कभी पहना हो तब तो. बहुत छोटी थीं तब फ्रॉक पहनती थीं, उसके बाद तो बस साड़ी ही पहना उन्होंने. बस साड़ी की क्वालिटी बदलती गयी समय के साथ, अब बढ़िया वाली पहनती हैं लेकिन ये बढ़िया साड़ी थोड़ी खटकती है उनको. जैसी जिंदगी उन्होंने देखी थी, कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि उनका भी ऐसा समय आएगा. 

कई बार उनके मन में आता कि उस झाड़ू लगाने वाली को बुलाकर उससे बात करें, उससे कुछ पूछें. लेकिन जिस परिवेश में वह आजकल रह रही थीं, उसमें उनको यह संभव नहीं लग रहा था. ऐसा नहीं था कि उनको कोई कष्ट था, बेटा बड़ा अफसर था, सरकारी गाड़ी मिली हुई थी और बड़ा सा घर था. जितनी सुविधाओं के बारे में वह सोच सकती थीं, वह तो उनके नौकर को ही मिली हुई थी. उनकी अपनी सुविधाएँ तो कल्पनातीत थीं, सचमुच अकल्पनीय. उनकी नजर फिर से बाहर चली गयी, वह औरत अब सारा कचरा एक जगह इकठ्ठा कर रही थी जिसे बाद में एक गाड़ी आकर ले जायेगी. उनके देखते ही देखते उस औरत ने कचरा इकठ्ठा किया, फिर अपने कपडे झाड़कर आगे बढ़ गयी. वह उसे दूर तक देखती रहीं जब तक वह आँख से ओझल नहीं हो गयी.

उसके जाते ही वह वापस आकर बिस्तर पर लेट गयीं, अभी घर के सभी लोगों को जगने में घंटों बाकी था. उनको यह बिलकुल समझ में नहीं आता था कि आखिर सोने के समय जागकर और जागने के समय सोकर इन लोगों को क्या मिलता है. गांव में तो सब मुंह अँधेरे ही जग जाते थे और सूरज जरा सा चढ़ा नहीं कि लोग घर वापस भी आने लगते थे. वैसे भी उनको याद है कि कैसे घर के बूढ़े बुजुर्ग कहता थे कि देर तक सोने से घर में दलिद्दर (गरीबी) का वास होता है. अब ये बात दीगर है कि उनकी कई पुश्तें सुबह जल्दी उठती रहीं लेकिन दरिद्दर ने उनका साथ कभी नहीं छोड़ा. खैर इस बारे में सोचते सोचते उनका दिमाग गाँव पहुँच गया, वह पुराने दिनों में खो गईं. उनका गाँव उस समय विकास की रौशनी से कोसों दूर था, न बिजली बत्ती, न सड़क और न ही पास में कोई स्कूल. छप्पर के घर, मिटटी से लिपी दीवारें और बाहर कीचड़ और गन्दगी. जब वह पैदा हुईं थीं तो घर में कोई भी शिक्षित नहीं था, दरअसल किसी ने स्कूल का मुँह ही नहीं देखा था. उनके गाँव में उस समय भी स्कूल जाने पर लोगों में दहशत थी जो कई सालों पहले उनके वर्ग में से किसी के बच्चे के स्कूल जाने पर हुई बेरहम पिटाई की देन थी. आज उनको लगता है कि शायद उनके समय में भी उनकी बिरादरी के लोग अगर स्कूल का मुंह देखे होते तो यह दलिद्दर बहुत पहले ही उनका पिंड छोड़ चुका होता. 

घर में माँ, बापू, तीन बहनें और दो भाई थे, वह सबसे छोटी थीं इसलिए उनके समय तक स्थितियों में थोड़ा बहुत परिवर्तन आने लगा था. बापू प्रधान के यहाँ जानवरों की देखभाल करते थे, उनके लिए चारा काटना, उनको नांद पर बांधना, पानी देना, गोबर उठाना और फिर बचे हुए समय में खेत पर जाकर काम करना. बापू को बस उपले पाथने का काम नहीं करना होता था क्योंकि वह माँ के जिम्मे था. अपने खेत के नाम पर लगभग दो तीन बिस्वा खेत था जो गाँव के दूसरी तरफ था, कुछ सब्जी भाजी उसमें उग जाती थी. दो तीन बकरियाँ, कुछ मुर्गी मुर्गे और एक झबरा कुत्ता जो हर समय अपने शरीर को खुजलाया करता था. अगल बगल के घर भी कमोबेश ऐसे ही थे और सबकी माली हालत एक सी ही थी. सड़क के उस पार ऊँची जातियों के घर थे जहाँ जीवन काफी बेहतर था और वो भी अक्सर प्रधान के घर अपनी माँ के साथ चली जाती थीं. भेदभाव हर जगह था, घरों में, जीवन में, रहन सहन में और यहाँ तक कि उन बेजान सडकों में भी जो उनकी तरफ बहुत खराब थीं और दूसरी तरफ बढियाँ. 

गाँव के अन्य पुरुषों की ही तरह शनिचरी के बापू भी देसी शराब के गुलाम थे, अक्सर रात में नशे में धुत्त होकर आना और फिर हो हंगामा करके सो जाना. सुबह फिर तड़के उठकर प्रधान के घर निकल जाना, शायद ही कभी दिन में बापू घर पर नजर आते हों. समय गुजरता गया और वह जब थोड़ी बड़ी हुई तो बाकी बहनों की ही तरह उनकी शादी के लिए भी लड़का देखा गया. कुछ महीने बाद वह अपने ससुराल चली गयी जो संयोग से उनके गाँव से काफी दूर था, नहीं तो बाकी बहनों की शादी आस पास के गाँव में ही हो गयी थी. उनकी ससुराल शहर से नजदीक था इसलिए वहां उतनी ख़राब स्थिति नहीं थी. लगभग हर घर में बिजली का एक बल्ब जलता था और किसी किसी घर में एक टेबल फैन भी था. उनको ऐसा लगा जैसे वह अँधेरे देश से निकल कर उजालों के देश में आ गयी. बस एक चीज दोनों जगह ही थी, गरीबी और ज़हालत. उसके पति भी खेतों पर काम करते थे लेकिन उस गाँव के कुछ बच्चे स्कूल भी जाते थे. लिहाजा जब उनके घर रग्घू पैदा हुआ तो उसे तमाम मुश्किलों के बावजूद भी स्कूल भेजने में उन्होंने कोई कोताही नहीं की. वैसे तो रग्घू के बाद तीन और बच्चे पैदा हुए थे लेकिन बचा सिर्फ दीनदयाल ही, बाकी दोनों लड़कियाँ छुटपन में ही परलोक सिधार गयीं. वैसे तो कहा जाता है कि लड़कियाँ लड़कों से ज्यादा जिन्दा रहती हैं लेकिन उनके यहाँ ऐसा नहीं हुआ. 

"लड़कियाँ तो कठकरेजी होती हैं, हर हाल में जी लेती हैं", ऐसा उन्होंने कई बार सुना था, खैर अब तो उनकी शक्ल भी याद नहीं है उनको. अब दुःख तो उनको बहुत हुआ था लड़कियों के इस तरह असमय गुजर जाने का लेकिन उस समाज में शायद ही कोई लड़कियों की मृत्यु पर शोक मनाता था. दोनों लड़के पढ़ने में ठीक थे इसलिए उनको पढ़ाने में शनिचरी देवी को कोई दिक्कत नहीं हुई. समय पर स्कूल भेजना, उनके लिए चाहे टिफ़िन में रोटी और अचार ही देना हो लेकिन देती जरूर थीं. उस समय स्कूल में कोई ड्रेस का चलन नहीं था इसलिए उस समस्या से बच गयीं थीं वरना आजकल तो ड्रेस के मद में ही रग्घू अच्छा ख़ासा खर्च कर देता है. फीस भी नहीं लगती थी इसलिए स्कूल नहीं भेजने का कोई भी कारण उनके घरवालों के पास नहीं था, ये अलग बात थी कि कई बार उन्होंने घरवालों को कहते सुना था कि पढ़ लिखकर अफसर थोड़े ना बनेंगे ये बच्चे. शायद यही कारण था कि उनके मन में बच्चों को अफसर बनाने की सोच प्रगाढ़ हो गयी और फिर उन्होंने तब तक दम नहीं लिया, जब तक उन्होंने बच्चों को अपने पैरों पर खड़ा नहीं कर दिया.

"गुड मॉर्निंग दादी", कुहू की आवाज उनको वर्तमान में ले आयी, वह मुस्कुरा उठीं. अब कुहू को उसकी भाषा में ही जवाब देतीं तो वह एकदम से खिल उठती. लेकिन शहर में आने के बाद खड़ी हिंदी तो फिर भी उन्होंने सीख लिया था लेकिन वह चाह कर भी अंग्रेजी के कुछ शब्द भी नहीं बोल पाई. कभी कभार यूँ ही कुहू की नक़ल करते हुए "गुद मारनी" बोल देती जिसे सुनकर कुहू हंसकर लोटपोट हो जाती. उन्होंने उठकर कुहू को अपनी गोद में ले लिया और प्यार से उसको एक स्नेहिल चुम्बन दे दिया. 

"स्कूल की तैयारी हो गयी बच्ची", कुहू को वह प्यार से बच्ची ही बुलाती थीं. 

कुहू कस कर हंसी "क्या दादी, आज तो संडे है, आज कौन सा स्कूल चलता है".

ओह, आज रविवार है, उनको ध्यान ही नहीं था. मतलब आज रग्घू और बहू देर तक सोयेंगे इसलिए चाय बना लेनी चाहिए. 

"मैं तो भूल ही गयी थी बच्ची कि आज रविवार है. फिर तो आज खूब मजा आएगा", उनको भी छुट्टी का दिन कुहू के चलते ही ज्यादा अच्छा लगता था, दिन भर वह उनके आसपास ही घूमती रहती थी. 

रविवार कैसे बीत गया, उनको पता ही नहीं चला. अच्छे दिन शायद दुगुनी रफ़्तार से बीतते हैं, और उनके तो सबसे अच्छे दिन चल रहे थे. रात में सोते समय पता नहीं क्यूँ उनकी आँखों के सामने फिर से उसी औरत का चेहरा तैर गया जिसे वह झाड़ू लगाते देख चुकी थीं. शायद अपने आप को उससे जुड़ा हुआ महसूस कर रही थीं या उससे थोड़ी सहानुभूति हो गयी थी, लेकिन जो भी हो अब उससे बात करने की इच्छा उनके मन में प्रबल होती जा रही थी. घर में काम करने वाले किसी भी नौकर से उसकी जाति के बारे में पूछना उनको उचित नहीं लगता था क्योंकि रग्घू या बहू कभी भी इस तरह की कोई बात घर में नहीं करते थे. लेकिन दोनों सभी नौकरों से एक निश्चित दूरी जरूर रखते थे और उसके चलते उनको भी कभी नौकरों से खुलकर बात करने का मौका नहीं मिलता था. लेकिन झाड़ू लगाने वाली औरत के बारे में वह मन ही मन निश्चिन्त थीं कि वह तो उनकी ही बिरादरी की होगी.

जब मन में कोई उधेड़बुन चल रही हो तो नींद भी उतनी अच्छी नहीं आती है और यही उनके साथ भी हुआ. अगले दिन अलसुबह ही उनकी नींद खुल गयी और उन्होंने पर्दा हटाकर बाहर देखा. अभी भी हल्का कुहासा फैला हुआ था और झाड़ू लगाने वाली औरत नहीं आयी थी. लेकिन घड़ी की सुईयों से उनको समय का अंदाजा हो गया और उस औरत के आने का समय भी. उन्होंने हाथ मुंह धोया और दरवाजा खोलकर बाहर निकलीं, अंदर सभी लोग गहरी नींद में सो रहे थे. थोड़ी देर तब वह सामने के चबूतरे पर बैठी रहीं, दिमाग में बहुत कुछ चल रहा था. उस औरत से बात करना उनको तो अच्छा लगेगा लेकिन क्या रग्घू और बहू को ठीक लगेगा. रग्घू के बारे में तो फिर भी उनको थोड़ा भरोसा था कि उनके इस बात का वह बहुत बुरा नहीं मानेगा, और अगर उसे बुरा भी लगेगा तो वह माँ को प्यार से समझा देगा. लेकिन बहू के बारे में सोचकर वह परेशान हो गयीं, बहू जिस घर से आयी थी, वह घर शुरू से ही संपन्न था और उसके माता पिता की हैसियत उन लोगों से बहुत ज्यादा बेहतर थी. वो तो रग्घू की नौकरी थी जिसके चलते वो लोग खुद ही उनके पास रिश्ता लेकर आये थे वर्ना उनको बहू के घर जाने की हिम्मत ही नहीं पड़ती. घर में कभी भी अपने समाज के बारे में कोई भी चर्चा बेटा बहू नहीं करते थे और अगर कभी गलती से उनके मुंह से कुछ ऐसा निकल भी जाता था तो दोनों चुप्पी लगा जाते थे. 

सामने से जब वही औरत हाथ में लम्बा झाड़ू लेकर आती दिखाई दी तो उनकी तन्द्रा टूटी. उसने एक तरफ से झाड़ू लगाना शुरू किया और सड़क पर बेतरतीब फैले कचरे को एक तरफ धकेलते हुए उनके पास आ गयी. उन्होंने साड़ी के पल्लू से अपनी नाक ढक ली नहीं तो धूल से उनको छींक आनी शुरू हो जाती. उस औरत ने एक बार उनकी तरफ देखा फिर अपने काम में लगी रही, उसे इस बात में कोई दिलचस्पी नहीं थी कि आखिर शनिचरी देवी यहाँ किस लिए बैठी हैं. अव्वल तो उसने कभी देखा भी नहीं था इसलिए जानने का सवाल ही नहीं था और अगर देखा भी होता तो भला कैसे पूछती. 

उन्होंने ही बात करने की गरज से कहा "अरे माई, तुम्हारा नाम क्या है". 

उस औरत को शायद सुनाई नहीं दिया या फिर उसने जान बूझकर अनसुना कर दिया. कुछ पल बाद उन्होंने फिर से तेज आवाज में उसकी तरफ देखकर पूछा "अरे तुम्हारा नाम क्या है माई, रोज यहाँ झाड़ू लगाते देखती हूँ".

अब वह औरत रुकी, उसने झाड़ू को कमर से टिकाया और शनिचरी देवी की तरफ मुखातिब हुई "हमारा नाम राजवंती है अम्मा, लेकिन तुमको तो पहले कभी नहीं देखा? 

"लेकिन हम तो तुमको रोज देखते हैं, नियम से यहाँ झाड़ू लगाती हो", शनिचरी देवी ने मुस्कुराते हुए कहा.

"और हम सामने वाले घर में रहते हैं, हमारा बेटा यहाँ का बड़ा अफसर है", ऊँगली से अपने घर की तरफ इशारा करते हुए शनिचरी देवी ने कहा.

वह औरत थोड़ा संकोच में पड़ गयी, उसे पता था कि सामने वाले बंगले में कोई बड़ा अधिकारी रहता है. वैसे तो वह पूरा इलाका ही ऐसे लोगों का निवास था जो सरकारी विभाग में बड़े ओहदे पर थे. लेकिन आखिर ये हमसे बात करने क्यों आयी हैं, उस औरत को समझ नहीं आया. उसने थोड़े अदब से सर झुकाया और शनिचरी देवी की तरफ हाथ जोड़ दिया, मन में संशय भी था कि कहीं सफाई में कोई कमी तो नहीं रह गयी. 

शनिचरी देवी की इच्छा तो हुई कि वह उसका हाथ पकड़ लें और साथ में चबूतरे पर बैठाकर हाल चाल पूछें, लेकिन उन्होंने अपने आप को रोका और आराम से पूछा "तुम्हारे घर में और कौन कौन हैं, हमेशा अकेले ही देखा है तुमको?

वह औरत अब आराम से खड़ी हो गयी, उसे समझ में आ गया कि हर हालत में इनके सवाल का जवाब देना ही होगा.   

"मेम साहब, हमारा पूरा परिवार यहाँ रहता है, आदमी भी साफ़ सफाई का काम करता है और हमारे ससुर भी साथ ही रहते हैं. तीन बच्चे हैं, दो बड़ा वाला लड़का पास के सरकारी स्कूल जाता है, लड़की अभी छोटी है".

उस औरत ने अपने परिवार के बारे में सब बता दिया और उसे लगा कि बात ख़त्म हो गयी तो वापस से झाड़ू को हाथ में लेकर आगे बढ़ने को उद्यत हुई.

"अरे, अपने बच्चों की पढ़ाई लिखाई का पूरा ध्यान देती हो ना, बहुत जरुरी है?, अभी भी सनीचरी देवी उसे जाने देने के मूड में नहीं थीं. पढ़ाई का फायदा उनसे बेहतर कौन समझ सकता था, इसलिए पढ़ाई की बात करना वह नहीं भूलीं. अभी भी सुबह का सूरज दिखाई नहीं पड़ रहा था और उनके पास समय था, पता नहीं बेटा और बहू जग गए तो बात कर पाएं या नहीं.

"हाँ मेम साहब, बच्चों की पढ़ाई तो चल रही है, अब हमको तो ज्यादा पता नहीं है और न हमारे आदमी को. हम लोग पढ़े लिखे होते तो समझ पाते, बाकी किताब कॉपी सब स्कूल से मिल जाता है", राजवंती अब समझ गयी कि इनसे बात करने में कोई दिक्कत नहीं है.

"ठीक है, कोई दिक्कत हो तो बताना, हम कोशिश करेंगे मदद की", शनिचरी देवी उठ खड़ी हुईं और राजवंती को ऐसी नजर से देखा कि उसे उनकी बात पर भरोसा हो जाए. वह अपने घर की तरफ मुड़ी और जब तक अंदर नहीं चली गयीं, राजवंती उनको देखती रही.

शायद ये सचमुच कुछ मदद करें, उसने एक बार सोचा लेकिन फिर पहले के कड़वे अनुभव को याद करके उसने सर झटक दिया और वापस झाड़ू लगाने लगी.

कुछ दिन ऐसे ही गुजर गए, शनिचरी देवी उसको देखतीं, लेकिन उस समय तक कोई न कोई जग चुका होता इसलिए वह बाहर नहीं जातीं. कुहू रोज उनके पास सुबह शाम आती और ढेरों बात करती, बेटा बहू भी रोज हालचाल पूछते रहते. लेकिन शनिचरी देवी फिर से बात करने का मौका ढूँढ रही थीं, उनके दिमाग में राजवंती के बच्चों के लिए कुछ करने की इच्छा बलवती हो रही थी. और एक दिन जब कोई जगा नहीं था तो वह फिर से बाहर निकल गयीं और उनको देखते ही राजवंती रुक गयी.

"नमस्ते मेम साहब, तबियत ठीक है ना, कई दिन से दिखाई नहीं पड़ीं आप?

"सब ठीक है राजवंती, अपना बताओ. तुम्हारा आदमी कहाँ काम करता है, यहीं आसपास या दूर".

"मेम साहब, आदमी म्युनिस्पैलिटी में सफाई का काम करता है तो ज्यादा दूर नहीं जाता, लेकिन उसका काम बहुत मुश्किल वाला है, सीवर में भी उतरना पड़ता है उसको", राजवंती ने एक सांस में कह दिया.

शनिचरी देवी के नजर के सामने उनका बचपन का गाँव आ गया, उनकी बिरादरी के लोग मरा जानवर उठाने से लेकर नाली सफाई तक सब काम करते थे. आज उनको सोचकर ही बुरा लग रहा है कि कितना कष्टप्रद होता है ऐसे काम को करना. साथ ही उनको यह भी समझ में आ गया कि इसके बच्चे तो शायद ही ठीक से पढ़ते होंगे. उनके दिमाग में पिछले कुछ दिनों से जो चल रहा था, वह उनके मुंह में आ गया.

"तुम कभी बच्चों के स्कूल गयी हो राजवंती, उनके मास्टर से कुछ बात किया है कभी".

राजवंती ने उनकी तरफ अजीब सी निगाहों से देखा और ना में सर हिला दिया. "हम कैसे जाएंगे उनके स्कूल, अक्षर का भी ज्ञान तो नहीं है हमको".

"अरे तो क्या हुआ, तुम स्कूल जरूर जाना और मास्टर साहब से पूछना कि बच्चे ठीक से पढ़ रहे हैं या नहीं, फिर हमको भी बताना". उन्होंने कहा और घर निकल गयीं.

राजवंती सोच में पड़ गयी, स्कूल जाएँ कि नहीं, उसे समझ नहीं आ रहा था. उधर उसे यह भी लगने लगा था कि शायद यह मेमसाहब उसकी मदद करेंगी वरना क्यों बार बार पूछतीं. फिर उसने सोच लिया कि एक बार बच्चों के स्कूल जाकर देखते हैं. 

शनिचरी देवी अपने कमरे में आयीं और बिस्तर पर लेट गयीं, घर में उनके सिवा कोई और नहीं जगा हुआ था. लेटे लेटे उनके दिमाग में तमाम विचार आते जाते रहे, उनको इसका आभास तो हो ही गया था कि राजवंती भले स्कूल चली जाए, उससे कुछ होना नहीं है. क्या उनको रग्घू से इस विषय में कुछ बात करनी चाहिए, इस बात पर वह पेशोपेश में थीं. फिर उन्होंने सोचा कि एक बार राजवंती स्कूल हो आये तो देखा जाएगा.   



 




    

Wednesday, November 16, 2022

कुत्ता/गुबार--लघुकथा

 रोज शाम को अपने बच्चे के साथ मोहल्ले में टहलना उसकी आदत में शुमार था. या यूँ कहें कि घर आते ही बच्चा घूमने के लिए मचलने लगता था और जब तक वह बच्चे को घुमा नहीं लेता था तब तक न तो बच्चे को और न उसे ही चैन मिलता था. आज भी जब वह बच्चे के साथ बाहर निकला तो अचानक उसकी नजर अपने एक कलीग पर पड़ी जिसे उसके ऑफिस के अधिकांश लोग नापसंद करते थे. इसकी वजह थी उसकी बॉस को खुश रखने के लिए कुछ भी करने की आदत जिसे बाकी लोग नहीं कर पाते थे.

तक़रीबन उसी समय पड़ोसी का बहुत प्यारा सा पपी भी बाहर निकला जिसे देखते ही उसका बच्चा बेहद खुश हो जाता था. आज भी जैसे ही बच्चे ने पपी को देखा, उसने आदतन कहा "पापा, पापा, देखो तो क्या है?

वह सोच ही रहा था कि रोज की ही तरह कहे कि 'पपी" लेकिन लेकिन उसकी नजर कलीग की तरफ पड़ गयी और उसके मुंह से बेसाख्ता निकल गया "कुत्ता".  

Tuesday, February 8, 2022

हमें क्या हो गया है--छोटी सी कहानी

 उसके सब्र की इन्तेहाँ हो रही थी, लगभग दो घंटे बीत चुके थे उसे पार्क में आये हुए. घर में सुबह ही उसे पता चल गया था कि परी अपनी माँ के साथ आ रही है. छह महीने तो बीत ही चुके थे उसे परी को देखे लेकिन कोई रास्ता भी नहीं था उसके पास जिससे वह परी को एक नजर देख भी सके. पत्र लिखने की हिम्मत कहाँ से आती जबकि उसे खुद पता नहीं था कि परी उसके लिए क्या सोचती है. 

साथ पढ़ते थे दोनों और एक ही मोहल्ले में रहते थे, उस समय आने जाने के लिए बहुत हुआ तो एक साइकिल मिल जाती थी, वर्ना पैदल ही स्कूल जाना और आना. न तो कोई कोचिंग थी और न ही ट्यूशन जिसके चलते कहीं और मुलाकात हो सके. लेकिन जो भी हो, उसे परी से बात करना, उसे देखना बहुत अच्छा लगता था. शाम को खेलते समय भी अक्सर दोनों एक ही खेल खेलते थे और उस समय तक परी एक लड़की है और वह एक लड़का, ऐसा फ़र्क़ उसके जेहन में नहीं आता था. उनके घरवालों का भी एक दूसरे के घर आना जाना था और एक सामान्य जिंदगी मजे में बीत रही थी.

उसके पिताजी का तबादला नयी जगह हो गया और उससे वह मोहल्ला, वह शहर छूट गया. कुछ महीने तो नयी जगह में व्यस्तता में बीत गए लेकिन जब सब चीजें सामान्य हुई और पढ़ाई लिखाई के लिए कॉलेज जाना शुरू हुआ तो रह रह कर परी याद आने लगी. धीरे धीरे उसे यह एहसास तो हो गया कि परी उसे एक दोस्त से कुछ ज्यादा ही लगती है लेकिन उससे ऊपर वह कुछ सोच नहीं पाता था. उसके पास परी की एकाध किताबें, कुछ कॉमिक्स और एक दो नोटबुक थीं जिसमें ऐसा कुछ भी नहीं लिखा था जिससे किसी नतीजे पर पहुंचा जाए. लेकिन समय के साथ साथ उसे लगने लगा था मानो परी ने वह किताबें इत्यादि उसके पास जानबूझकर छोड़ी थी. बस एक चीज उसे किसी भी किताब में नहीं मिली और वह चीज थी कोई सूखा हुआ गुलाब. 

उसके घर के बिलकुल पास एक छोटा सा पार्क था जहाँ वह अन्य लड़कों के साथ क्रिकेट और फुटबाल खेलता था. अब उम्र बढ़ने के साथ साथ संकोच भी आने लगा था वर्ना पुराने मोहल्ले में तो लड़के लड़कियां साथ साथ ही खेलते थे. आज भी रविवार था और लड़कों की टोली खेलने के बाद जा चुकी थी लेकिन वह अभी भी वहीं खड़ा था. दरअसल सड़क होने के चलते परी का रिक्शा पार्क के सामने से ही गुजरने वाला था और वह उसकी एक झलक देख पाता.    

अचानक एक रिक्शे के घंटी की आवाज आयी, उसने पलटकर आवाज की तरफ देखा. रिक्शे पर परी अपनी माँ के साथ उसके घर ही जा रही थी. कितनी प्यारी लग रही थी परी, उसने मुस्कुराकर परी को देखा, परी की निगाह भी उससे टकराई और वह भी मुस्कुरा दी. लेकिन संकोच दोनों तरफ था और वह कुछ सेकेंड रिक्शे को जाते देखता रहा, मन तो कर रहा था कि वह भी दौड़कर रिक्शे के पीछे पीछे जाए और परी के साथ खूब सारी बातें करे. लेकिन वह देखता रहा कि रिक्शा उसके घर के सामने रुका, परी अपनी माँ के साथ अंदर चली गयी. उसके कदम मानों जड़ हो गए, वह चाह कर भी घर की तरफ नहीं जा पाया. बगल के मोहल्ले में उसके दोस्त का घर था, उसके कदम दोस्त के घर की तरफ बढ़ गए. आगे पान की दूकान पर रखे रेडियो से बेहद खूबसूरत गाने की आवाज आ रही थी "मिलो न तुम तो हम घबराएं, मिलो तो आंख चुराएं, हमें क्या हो गया है". 


Saturday, January 15, 2022

जीत का जश्न - कहानी

 दूर से बजते नगाड़ों की आवाज़ सुनाई दे रही थी, खटिया पर लेटे लेटे बंशी ने बाहर देखा। लगता है कि नतीजा आ गया और जिस तरह से उसके पट्टी में उत्तर की तरफ़ नगाड़े बज रहे थे, उसे आभास हो गया कि नन्हे चच्चा जीत गए। थोड़ी दूर पर दूसरी खटिया में जोखू भी खाँसते हुए पड़ा था, आज उसकी तबीयत भी गड़बड़ लग रही थी।

"का हो जोखू, तबीयत कैसी है हो", बंशी ने कंहरते हुए पूछा।

"बुख़ार चढ़ रहा है और खाँसी भी लगता है, कल सुबह शहर चले जाएँगे", जोखू को बोलते बोलते फिर से खाँसी आ गई। घर के अंदर जोखू-बो काढ़ा बना रही थी, वह बाहर आ गई।

"पानी लाएँ का सोनू के पापा", उसने जोखू को देखते हुए दूर से ही पूछा। आज भी वह जोखू को नाम से नहीं बुलाती है, हालाँकि अब उसकी पीढ़ी की कुछ लड़कियां अपने शौहर को नाम से बुलाने लगी हैं।

"ले आओ और अदरक भी काट के ले आना, खाँसी से राहत मिल जाएगी", जोखू ने खटिया पर बैठते हुए कहा।

अब नगाड़े की आवाज़ काफ़ी नज़दीक आ गई थी, बंशी किसी तरह खटिया से उठकर बाहर जाने का उपक्रम करने लगे। आख़िर इसी के लिए तो वह अपना पूरा कुनबा लेकर महानगर से गाँव आए थे।

"बाहर मत जा, सब लोग अंदर आएँगे", जोखू ने कहा तो बंसी वापस खटिया पर ढह गए।

गाँव में पिछले तीन बार से चुनाव में आरक्षण के चलते उनके पट्टी से ही लोग खड़े होते थे। पहले तो सिर्फ़ बड़ी जाति के लोग चुनाव लड़ते, परधान बनते और फिर पाँच साल बाद दुबारा यही सब होता। जितने लोग परधान बने, उन सबका घर पक्का हो गया और उनके दरवाज़े पर एकाध गाड़ी भी खड़ी हो गई। लेकिन बड़ी जाति के लोगों के परधान बनने पर उनके पट्टी में में फ़र्क़ बस इतना होता कि बदहाली थोड़ी और बढ़ जाती और कुछ नए घरों पर ताला लटक जाता, लोग रोटी और रोज़गार के लिए गाँव से बाहर पलायन कर जाते। आज की तारीख़ में कम-से-कम 25 घर ऐसे थे जहाँ के सभी लोग महानगर जा चुके थे और सिर्फ़ शादी बियाह और परधानी के चुनाव में घर आते।

"अरे का हो बंसी काका, ल लड्डू खा, नन्हे चच्चा जीत गए", नन्हे के भतीजे ने आकर लड्डू का एक छोटा पैकेट उनकी तरफ़ बढ़ाया और फिर बिना उनके जवाब का इंतज़ार किए आगे बढ़ गया। बंसी ने डिब्बा खटिया पर ही रख दिया, उनकी इच्छा नहीं हो रही थी कि वह लड्डू खाते।

"अरे का भईल, लड्डू न खइबा का?,जोखू ने कहा तो उसकी आवाज़ में तंज़ साफ़ झलक रहा था। तब तक जोखू-बो पानी और कटा हुआ अदरक लेकर आ गई, उसने पानी जोखू को पकड़ाया और धीरे-से लड्डू का डिब्बा उठा लिया।

बंसी कुछ नहीं बोले, वापस खटिया पर लेट गए। उनको यह तो पता ही था कि जोखू इस बार गाँव आने पर ख़ुश नहीं था। वैसे भी पूरा देश इस समय महामारी के क़हर से जूझ रहा था और जोखू पूरे घर को मुश्किल में डालकर गाँव आने का ख़तरा नहीं लेना चाहता था।

लगभग दस बरस पहले बंसी भी गाँव छोड़कर महानगर चले गए थे और वहाँ पर एक बंगले पर चौकीदारी करने लगे थे। जोखू की माँ और जोखू को लेकर कुल तीन लोग थे और रहने का ठिकाना भी मिल गया था। जोखू की माँ भी घर से ही पापड़ बड़ी आदि बनाने लगी और थोड़ी-बहुत कमाई उससे भी होने लगी। गाँव के ही कुछ और लोग भी वहीं रहते थे और सबका मन लगा रहता था, बस साल में एकाध बार गाँव आना होता था।

जोखू कुछ साल तक तो किसी तरह से पढ़ाई करता रहा, फिर उसने भी एक फ़ैक्ट्री में काम करना शुरू कर दिया। अब आमदनी ठीक-ठाक होने लगी और बंसी का परिवार आराम से रहने लगा। दो साल पहले एक रात जोखू की माँ को बुख़ार आया और अगले सात दिन तक चढ़ता उतरता रहा। बाद में हस्पताल में जाने के बाद अगले दिन ही वह चल बसी। अब घर में सिर्फ़ दो प्राणी बचे, दोनों नौकरी करने वाले तो खाना बनाने का संकट आ गया। इसलिए तीन महीने बाद ही जोखू की शादी हो गई और घर के देखभाल के लिए एक औरत आ गई।

जैसे-जैसे इस महामारी ने अपना पाँव फैलाना शुरू किया, लोगों की नौकरियों पर संकट आने लगा। ऐसे में एक दिन बंसी को भी अगले दिन से काम पर नहीं आने का फ़रमान मिला तो वह मन ही मन रो पड़ा। लेकिन जोखू की नौकरी क़ायम थी तो खाने के लाले नहीं पड़े और फिर जोखू-बो ने भी अपनी सास वाला काम शुरू कर दिया। दिन बस इस संकट के टलने के इंतज़ार में बीत रहे थे और सबकी तरह बंसी भी इसी आस में जी रहे थे कि सब ठीक हो जाएगा।

दस दिन पहले ही गाँव से नन्हे चच्चा का फोन आया "का हाल हौ बंसी, सब ठीक हौ न"।

बंसी ने भी हामी भर दी "पाँय लागूं चच्चा, सब ठीक हौ इहाँ, उहाँ गाँव में सब ठीक बा न"।

"हाँ, इहाँ भी सब ठीक हौ लेकिन तोहरे परिवार का ज़रूरत हौ। अब तोंहके त पता हौ कि गाँव पर परधानी क चुनाव होत हौ अउर इ बार हम खड़ा हुई। पिछला परधान त गाँव ख़ातिर कुछ नाहीं कइलेस, अब हमहीं के कुछ करे के पड़ी", नन्हे चच्चा एक साँस में बोल गए।

बंसी हूँ हाँ करते रहे, चच्चा आगे बोलना शुरू किए "अब अगर तू लोग न अईबा त के हमार मदद करी, के हमके वोट देई। ए से तूँ फटाफट गाँव चल आवा। तोहके हमार परचार भी त करे के पड़ी"।

बंसी ने थोड़ा सोचा, फिर बोले "ठीक हौ चच्चा, हम आ जाईब"। उनको लगा कि वैसे भी वह घर पर खाली ही बैठे हैं तो गाँव जाएँगे तो कुछ मन बहल जाएगा।

"अरे तोंहके अकेले नाहीं आवे के हौ, पूरा परिवार लेके आवा। आख़िर तीन वोट हौ तोहार, सबकर आपन आपन लोग ए समय आवत हउअन", नन्हे चच्चा ने बात ख़त्म कर दी।

बंसी दिनभर सोचते रहे कि जोखू से चलने के लिए कहें या नहीं, वैसे भी जोखू गाँव से कोई मतलब नहीं रखता था। लेकिन अब बात उनके अपने सगे पट्टीदारी की थी, नन्हे चच्चा अगर परधान बने तो उसके लिए भी शायद कुछ बढ़िया ही हो।

शाम को जोखू घर आया तो बंसी ने बात छेड़ी "आज नन्हे चच्चा का फोन आया था, इस बार परधानी में खड़े हो रहे हैं"।

"अच्छा", जोखू ने कोई उत्साह नहीं दिखाया।

बंसी एक बार ठिठके, आगे कुछ कहें या नहीं। लेकिन बात कहनी भी ज़रूरी थी इसलिए फिर से बोले "चच्चा हम सब को गाँव बुलाए हैं, उनकी मदद करना हमारा भी फ़र्ज़ है"।

जोखू ने पलटकर देखा, उसकी आँखों में आश्चर्य और ग़ुस्सा था 'आपका दिमाग़ तो नहीं ख़राब हो गया है बाऊ, इस समय चारो तरफ़ महामारी फैली है और आपकी भी तबीयत अब ठीक नहीं रहती। अब ऐसे में हम गाँव जाने का सोच भी नहीं सकते, आप चच्चा से कोई बहाना मार दीजिएगा"।

जोखू की पत्नी भी तब तक पानी का गिलास लेकर आ गई थी। वह अमूमन इन सब बातों में अपनी कोई राय नहीं देती थी इसलिए पानी देकर वह चुपचाप खड़ी हो गई।

बंसी ने जोखू के पानी पीने का इंतज़ार किया और एक बार फिर बोले 'अरे तुम समझते नहीं हो, आख़िर पटिदारी का मामला है। हमको भी आज नहीं तो कल गाँव तो जाना ही है, उस समय क्या मुँह लेकर जाएँगे"।

जोखू ने कुछ नहीं कहा और कपड़ा बदलने लगा। कपड़ा बदलकर जब वह आया तो बंसी उसको ही देख रहे थे। उसे समझ में आ गया कि कुछ जवाब तो देना ही पड़ेगा तो उसने कहा 'न तो आप जाएँगे और न हम लोग, समझ गए न"।

बंसी का मुँह उतर गया, उनको उम्मीद तो थी कि जोखू को एक-दो बार कहना पड़ेगा लेकिन उनको ये भी उम्मीद थी कि वह आख़िर में मान जाएगा। अगले दो घंटे बेहद ख़ामोशी में बीते, रात का खाना भी बंसी ने आधे मन से ही खाया और वह जोखू और उसकी पत्नी को भी दिख गया।

सोते समय उसकी पत्नी ने बात छेड़ी "अगर बाऊजी कह रहे हैं तो उनकी बात मान क्यों नहीं लेते। अब बड़े हैं और गाँव समाज भी उनको ही देखना है, तुम्हारे मना करने से समाज में उनकी क्या इज़्ज़त रह जाएगी"।

जोखू भड़क गया 'तुम्हारा भी दिमाग़ फिर गया है क्या, ऐसे समय में कौन जाता है गाँव। अगर ग़लती से यह बीमारी लग गई तो मुश्किल हो जाएगा, वैसे भी बाऊजी कमज़ोर हो गए हैं आजकल"।

"वो तो ठीक है लेकिन उनको मना करना भी ठीक नहीं है। एक काम करो, आप चले जाओ गाँव, हम बाऊजी का ध्यान रख लेंगें", जोखू की पत्नी ने मनौती करते हुए कहा।

यह बात जोखू को ठीक लगी, वह दो-तीन दिन के लिए गाँव चला जाएगा और वोट देकर वापस आ जाएगा। उसने करवट बदल ली और सोने का उपक्रम करने लगा।

सुबह बंसी चुपचाप कुर्सी पर बैठे ऊपर ताक रहे थे, जोखू की पत्नी ने चाय दिया और पूछा "बाऊजी तबीयत तो ठीक है न, काहें उदास लग रहे हैं"।

बंसी ने चाय का कप पकड़ा और फीकी हँसी हँस दिए। कारण दोनों को पता था लेकिन उनकी आपस में इससे ज़्यादा कभी बात नहीं होती थी इसलिए बंसी ख़ामोशी-से चाय सुड़पने लगे। थोड़ी देर में जोखू आया तो उसे भी बाऊजी का लटका मुँह दिख गया। रात की बात उसे याद आई और उसने आवाज़ लगाई "अरे सुनो, मुझे भी चाय देना। अच्छा बाऊजी एक काम करते हैं, मैं गाँव चला जाता हूँ और चच्चा को वोट देकर आ जाऊँगा। ये ठीक रहेगा न?

बंसी को एक बार तो लगा कि ठीक ही है, जोखू गाँव जाकर वोट दे आएगा और चच्चा की बात भी रह जाएगी। लेकिन फिर उनको लगा कि वह नहीं जाएँगे तो चच्चा बुरा मान जाएँगे, वैसे भी उनके साथ के कुछ लोग इसी चुनाव के लिए गाँव जाने वाले थे। उन्होंने जोखू की तरफ़ देखा, वह चाय पी रहा था।

'ऐसा है जोखू कि यहीं से कुछ लोग गाँव जा रहे हैं और अगर हम नहीं गए तो चच्चा बुरा मान जाएँगे। आख़िर मेरे जाने में तुमको क्या दिक़्क़त है, चच्चा ने भी सबको बुलाया है"।

"आपकी तबीयत आजकल ठीक नहीं रहती है और ये महामारी भी फैली हुई है। ऐसे में गाँव जाना कोई समझदारी का काम नहीं है, आप बात को समझते क्यों नहीं?, जोखू ने उनको फिर से समझाने का प्रयास किया।

लेकिन बंसी जाने पर आमादा थे उन्होंने कह दिया "अगर हम नहीं गए तो हमारी तबीयत ज़्यादा ख़राब हो जाएगी। अरे गाँव में लोगों से मेल मुलाक़ात होगी तो मन बहल जाएगा हमारा"।

जोखू समझ गया कि बाऊजी बात नहीं मानने वाले हैं, ऐसे में अगर दोनों जाएँगे तो यहाँ उसकी पत्नी अकेले रह जाएगी और वहाँ गाँव पर भी भोजन कौन बनाएगा। इसलिए उसने हार मानते हुए कहा "ठीक है बाऊजी, बस चार पाँच दिन के लिए चलेंगे हम लोग और फिर आप हमारे साथ ही वापस आएँगे'।

बंसी के लिए इससे बढ़िया बात और क्या हो सकती थी, वह एकदम ख़ुश हो गए 'ठीक हौ, तोहरे संघे हम भी वापस आ जाएँगे"।

उधर जोखू अपने फ़ैक्ट्री गया, इधर बंसी ने गाँव चच्चा को फोन लगाया "पालागी चच्चा, हम लोग गाँव आ जाएँगे, आख़िर तोहरे परधानी का मामला हौ"।

अगले दिन पूरा परिवार गाँव के लिए निकल पड़ा, जोखू ने बाऊजी को भी मास्क पहनाया और ख़ुद भी पूरी सावधानी बरतते हुए गाँव चला। सड़क वही थी लेकिन लगता था जैसे उसका मिजाज़ ही बदल गया हो। कहाँ इस सड़क पर निकलने पर बस भीड़ ही भीड़ दिखाई पड़ती थी, चारो तरफ़ चिल्लाते हॉर्न, धुआँ उगलती गाड़ियाँ और एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में लगे लोग। लेकिन आज तो सब बदला हुआ था, भीड़ भी नहीं के बराबर थी और चिल्ल पों भी ग़ायब। ख़ैर पहले बस से, फिर टेम्पो से धक्का-मुक्की करते शाम होते होते वे लोग गाँव पहुँच गए। गाँव पहुँचते ही बंसी मुँह हाथ धोकर नन्हे चच्चा के यहाँ निकल गए।

"पालागी चच्चा, हम लोग आ गए। और सब कइसन चल रहा है, परचार तो ठीक हौ न?

नन्हे भी उनको देखकर ख़ुश हो गए, उनका तीन वोट पक्का हो गया था। उन्होंने भी हाथ जोड़कर नमस्कार किया और घर में आवाज़ लगाई 'अरे बंसी आए हैं, तनी चाय तो पिलाओ"। बाहर एक तरफ़ गोहरी पर बट्टी बन रहा था तो दूसरी तरफ़ दाल। कुछ लोग सलाद काट रहे थे तो कुछ बैंगन का चोखा बना रहे थे। कुछ खलीहर बीड़ी पीते हुए कुर्सी पर बैठे देश प्रदेश की राजनीति पर बहस छेड़े थे। उनमें से बहुत से लोग बंसी को पलग्गी करने के लिए खड़े हो गए तो कुछ लोग आकर हालचाल भी पूछने लगे। बंसी की सफ़र की थकान लगभग ग़ायब हो गई, आख़िर इसी के लिए ही तो वह गाँव आना चाहते थे। एक चीज़ सबमें कामन थी, किसी ने भी चेहरे पर मास्क नहीं लगाया था।

चाय पीते समय नन्हे चच्चा ने बंसी से धीरे-से कहा "बाक़ी लोग भी तोहरे पास वोट माँगने आएँगे, चालाकी से बात करना। किसी को अहसास न हो कि तोहार वोट हमको ही मिलेगा"।

लगभग साढ़े तीन सौ की आबादी वाले इस गाँव में तीन चौथाई पिछड़ी जाती के लोग थे। गाँव में तीन अलग-अलग पट्टी थी जिसमें पक्के घर वाले मकान ऊँची जाति वालों के थे। दूसरी पट्टी में यादव और कुनबी कोइरी थे जो बीच वाले थे, उनके पास खेती भी थी और कुछ धंधा भी करते थे। तीसरी पट्टी उनके लोगों की थी जिसमें अधिकांश घर बस किसी तरह से बने हुए थे। दो-चार अच्छे घर भी थे और उस घर से कोई या तो नौकरी कर रहा था या महानगर में अच्छा धंधा कर रहा था। वैसे तो ऊपर से देखने पर लगता था जैसे गाँव में बहुत शांति है, आपसी संबंध मधुर है लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं था। जातिगत वैमनस्य और किसी की तरक्क़ी पर जलना हर आम गाँवों की तरह यहाँ भी मौजूद था। और असली फ़र्क़ चुनाव के समय नज़र आता था जब ऊँची जाती के लोग चाहते थे कि पिछड़ी बस्ती से उनका कोई अपना आदमी ही परधान बने। और इसके लिए वह रुपया पैसा भी ख़र्चने को तैयार रहते थे। लेकिन अब समय बदल गया था और पिछड़ी जाति के लोग भी अपना महत्त्व समझने लगे थे। उनको पता था कि चूँकि उनमें से ही किसी को परधान बनना है तो वे भी चाहते थे कि कोई ठीक आदमी ही बने।

शहर में तो महामारी के चलते लोग थोड़ा सतर्क थे, मास्क वग़ैरा लगाते थे। लेकिन गाँव में तो जैसे उस महामारी का कोई ख़ौफ़ ही नहीं था। इसकी एक वजह तो यह थी कि जब पिछले साल यही महामारी पहली बार आई थी तो गाँवों में इसका कोई असर नहीं हुआ था। इसलिए लोगों को इस बार भी भरोसा था कि गाँव में इसका कोई असर नहीं होगा। बंसी ने तो उसी समय मास्क उतार दिया लेकिन जोखू ने अगले दिन भी लगाए रखा।

"का जोखू भैया, तबीयत ख़राब हौ का", एक गाँव के लड़के ने उसे टोका तो उसे आश्चर्य हुआ।

"हम त एकदम ठीक हैं, काहें पूछत हौ", उसने पूछा।

"अरे गाँव में कउनो महामारी न हौ, फिर इ बीमारन वाला मास्क काहें लगाए हो। पूरे गाँव में और कोई दिखाई देत हौ मास्क लगइले", उस लड़के ने हँसते हुए कहा।

ख़ैर उसने मास्क तो नहीं उतारा लेकिन उसे गाँव में कई लोग खाँसते और छींकते दिखाई दिए। उसने किसी से पूछा तो उसने बड़े आराम से जवाब दिया 'अरे मौसमी खाँसी हौ, दिन में एतना धूप और रात में ठंडी, एही से इ सब होत हौ"।

रात को जब बाऊजी आए तो उनको भी खाँसी हो रही थी। उसकी पत्नी ने काढ़ा बनाया और अदरक के टुकड़े खाने के लिए दिए जिससे कि बाऊजी कि खाँसी ठीक हो जाए।

"बाऊजी, थोड़ा अपना भी ख़याल रखिए, मुझे तो लगता है कि यहाँ भी महामारी फ़ैल रही है। अपने आपको लोगों से दूर ही रखिए", उसने बाऊजी के सर पर हाथ रखते हुए कहा। उनका सर हल्का गरम था लेकिन बाऊजी ने मुस्कुरा कर उसका हाथ हटा दिया "अरे मैं ठीक हूँ जोखू, बस मौसमी सर्दी खाँसी है, ठीक हो जाएगा"।

अगला तीन दिन चुनावी दौड़भाग में बीता, नन्हे चच्चा के अलावा पाँच और उम्मीदवार थे लेकिन असली मुक़ाबला नन्हे चच्चा और छुन्नन में ही था। तीनों दिन कभी एक प्रत्याशी उनके घर आता तो कभी दूसरा आता। जो भी आता, झुककर प्रणाम करता और सबका हालचाल भी पूछता। सभी रात को अपने यहाँ होने वाली दावत में आने का न्यौता ज़रूर देते और साथ में बँटने वाली दारू का भी इशारा कर जाते। बंसी ने अब दारू पीना लगभग बंद कर दिया था, और जोखू को इससे सख़्त चिढ़ थी। उसने अपनी पट्टी के कई घर इस दारू के चलते बर्बाद होते देखे थे इसलिए उसने दारू से तौबा कर ली थी। जोखू की पत्नी के आने के बाद बंसी को लगा कि अब पतोहू के सामने कभी जोखू ने दारू के लिए कुछ बोल दिया तो उनकी सारी इज़्ज़त धूल में मिल जाएगी। इसलिए उन्होंने भी दारू से दूरी बना ली थी। फिर चुनाव के दिन ख़ूब चहल-पहल रही और जब शाम को चुनाव ख़त्म हुआ तब सबको राहत मिली। उस रात बंसी जब घर पर सोए तो उनको तगड़ा बुख़ार आ गया और जोखू को भी हरारत महसूस होने लगी।

गाँव के बाज़ार वाले डॉक्टर से दवाई लेने के बाद कुछ देर तक तो ठीक रहता लेकिन बाऊजी को बुख़ार फिर आ जाता। धीरे-धीरे गाँव के कई लोगों को बुख़ार ने जकड़ लिया और हर घर के सामने खटिया पर छींकते लोग नज़र आने लगे। उसने वापस चलने के लिए कहा तो बंसी ने दो दिन और रुकने के लिए कहा "जब इतना दिन रुके तो दो दिन में रिज़ल्ट आ जाएगा, फिर चलेंगे। नन्हे चच्चा के जीत का नगाड़ा भी तो बजाना है"।

वह ख़ुद भी दवा लेता रहा और बाऊजी को भी खिलाता रहा। गाँव में न तो उस महामारी के लिए कोई टेस्टिंग की व्यवस्था थी और न ही कोई ऐसा हस्पताल जहाँ ज़्यादा बीमार होने पर किसी को भर्ती कराया जा सके। उसके लिए गाँव से बीस किमी दूर क़स्बे के हस्पताल में ही जाना पड़ता था।

जुलुस आगे बढ़ा और बंसी वापस खटिया पर लोट गए। जोखू भी पत्नी को खाने के लिए बोलकर वहीं टहलने लगा, कल सुबह ही यहाँ से निकल जाना है, उसके दिमाग़ में बस यही चल रहा था। हल्की खिचड़ी बनी थी जिसे खाने का मन नहीं था लेकिन बाऊजी को खिलाने के चलते उसे भी साथ-साथ खाना पड़ा। खाना खाकर दोनों लेटे ही थे कि नन्हे चच्चा के यहाँ से एक आदमी आया और अगले दिन के दावत का न्यौता दे गया।

"काल जीत के ख़ुशी में खस्सी का दावत हौ बंसी भैया, ज़रूर से आवा"।

रात को अचानक जोखू की आँख बाऊजी के कंहरने से खुली, उसने घड़ी देखी, रात के दो बज रहे थे। वह बाऊजी के खटिया पर गया और बाऊजी को उठाया। उनकी साँस बहुत तेज़ चल रही थी और ऐसा लग रहा था कि उनसे साँस लेते नहीं बन रहा है।

"बाऊजी, गहरी साँस लीजिए", वह घबरा गया।

उसकी पत्नी भी इतने में आ गई और दोनों मिलकर बाऊजी को साँस देने की कोशिश करने लगे। लेकिन बंसी की हालत देखकर उनको लगने लगा कि इनको तुरंत हस्पताल लेकर जाना पड़ेगा।

"मैं नन्हे चच्चा को बुलाता हूँ, इनको तुरंत हस्पताल लेकर जाना पड़ेगा", उसने घबराते हुए कहा। उसे भी हल्का बुख़ार था और कमज़ोरी भी थी। वह नन्हे चच्चा के घर भागा और थोड़ी देर बाद वहाँ से उनके लड़के को लेकर आया। पीछे से ड्राइवर भी जीप लेकर आ गया और दोनों ने बंसी को उठाकर जीप में लिटाया और शहर की तरफ़ चल पड़े।

इधर सुबह की पहली किरण निकली, उधर बंसी ने जीप में ही आख़िरी साँस ली। गाँव में भी तब तक जगाहट हो गई थी और नन्हे चच्चा के घर से कुछ लोग खस्सी ख़रीदने के लिए बगल के गाँव के लिए निकल गए। आख़िर आज उनकी परधानी में जीत का जश्न मनना था।


चन्नर - कहानी

आज दोपहर दरोगा चच्चा गुज़र गए, पिछले तीन चार हफ़्ते से बीमार चल रहे थे और उमर भी अब काफ़ी हो चली थी। दरअसल आजकल कहीं भी किसी बुज़ुर्ग का गुज़र जाना कोई घटना नहीं होती,बशर्ते वह कोई सेलेब्रिटी न हो। वैसे भी धीरे-धीरे उनकी पीढ़ी के अधिकांश बुज़ुर्ग प्रस्थान कर गए थे और कभी-कभी वह मज़ाक में कहते भी थे “आज सपना में मनोहरा ऊपर से बुलावत रहा, लागत हौ कि अब चले के पड़ी”, और ठठा कर हँस पड़ते।

ख़ैर बात यह नहीं है कि दारोग़ा चच्चा का गुज़र जाना कोई बहुत बड़ी या अप्रत्याशित घटना है, बूढ़ा गए थे, बीमार थे तो यह तो होना ही था। और अपने पीछे गाँव में भरा पूरा परिवार छोड़ गए जिसकी हर सुख-सुविधा का अपने जान में पूरा इंतज़ाम भी करके गए। घटना दरअसल कुछ और ही है, इनके जाने से एक क़िस्से का अंत हो गया जिसे लिखने की शायद अधिकतर लोगों को ज़रूरत महसूस ही नहीं होती। उस क़िस्से का सबसे महत्त्वपूर्ण किरदार “चन्नर” तो कुछ वर्ष पहले ही गुमनाम मौत मर चुका था और अब दारोग़ा चच्चा के गुज़र जाने से तो अगली पीढ़ी को कभी पता भी नहीं चलेगा चन्नरके बारे में। उसका असली नाम तो“चंदर” रहा होगा लेकिन लोगों ने अपनी सहूलियत से चन्नर बना दिया और बड़े तो उसे “चनरा” ही बुलाते थे। अब आप भी सोच रहे होंगे कि जब ऐसी कोई ख़ास बात ही नहीं थी इन घटनाओं में तो फिर मैं यह क्या लिखने बैठ गया, तो शायद इस क़िस्से से गुज़र कर आप समझसकें। वैसे भी अपने समाज में कहाँ किसी को ऐसे लोगों के बारे में सोचने की फ़ुर्सत रही है। और सिर्फअपने समाज को ही क्यों कहें, कमोबेश दुनिया के हर समाज में ऐसे लोग हासिए पर ही रहे हैं जिन्हें न तो वर्तमान में जगह मिलती है और न ही इतिहास में।

बचपन में गाँव जाना हर साल ही होता था,दरअसल उस समय छुट्टी बिताने के लिए आज की तरह न तो टी। वी। थे, न सिनेमा हाल और न ही इंटरनेट। फोन थे नहीं तो समाचार मिलने या भेजने का पत्र ही एक साधन था। गर्मियों की छुट्टी का बड़ी बेसब्री से इंतज़ार रहता था और उसकी वजह थी क़स्बे में गुज़र रहे अनुशासित जीवन से कुछ महीनों की फ़ुर्सत। गाँव में छुट्टी के दरम्यान न तो कोई टोकाटाकी होती और न पढ़ाई के लिए मारपीट। उस समय हमबच्चों को ऊँच नीच, छोटे बड़े का ख़याल नहीं रहता था, जबकि गाँव में सबके टोले अलग-अलग हुआ करते थे। बड़े अलबत्ता कोशिश करते कि बच्चे भी इन गंदगियों को अपने में आत्मसात कर लें लेकिन बच्चे तो बच्चे ही ठहरे।

ऐसी ही एक छुट्टी में गाँव पर मुलाक़ात हुई “चन्नर” से। अब उसे आप मुलाक़ात कहें या कुछ और, हमें तो हर बार कुछ-न-कुछ अलग और दिलचस्प मिल ही जाता था गाँव में। खेलते कूदते दारोग़ा चच्चा के दरवाज़े पर पहुँचने पर सामने से चन्नर दिखा, थोड़ा अलग था इसलिए याद रह गया।आगे के वर्षों में उसके चलने के तरीक़े को लेकर हम लोग अक्सर उसका मज़ाक भी उड़ाया करते थे लेकिन उसके भचक कर चलने के पीछे की दर्दनाक घटना का पता काफ़ी सालों बाद चला। एक अजीब सीमुस्कुराहट उसके चेहरे पर इस तरह रहती जैसे किसी ने पैदा होते ही उसके चेहरे पर इसे चस्पाँ कर दिया हो। और नाक से निकलती पतली आवाज़ जिससे हम लोग अँधेरे में भी चन्नरको पहचान लेते। आज भी चन्नरकी आवाज़ मन में गूँजती रहती है “कइसन हो भैया”, जो वह हमें जब भी देखता, अपनी चिरपरिचित मुस्कराहट के साथ ज़रूर पूछता।

और अगर सच कहूँ तो बचपन में तो हमें पता भी नहीं था कि चन्नरदरोगा चच्चा के घर का नहीं था। उस समय बच्चे बहुत साल तक बच्चे ही रहते थे और धीरे-धीरे उनके अंदर समाज की बुराई पैठ बनाती थी। और इसकी सबसे बड़ी वजह थी टी। वी। और इंटरनेट का न होना। और दूसरा कारण हर घर में बुज़ुर्गों की उपस्थिति थी हमारा ख़ूब ख़याल रखते। वरना आजकल तो बच्चों का बचपन जैसे पैदा होने के साथ ही खो जाता है। वह तो काफ़ी सालों बाद पता चला कि मंदबुद्धि चन्नर बचपन में ही पता नहीं कैसे उनके घर आ गया था और उसके बाद फिर उसकी लाश ही दारोग़ा चच्चा के घर से निकली। इस क़िस्से की शुरूआत तब हुई थी जब देश अंग्रेजों से तो कई साल पहले ही आज़ाद हो चुका था लेकिन जाति और धर्म के बंधन से ज़रा भी आज़ाद नहीं हुआ था। वैसे अपना समाज आज भी इन चीज़ों से आज़ाद कहाँ हुआ है, बस कहने के लिए हम विकसित होते जा रहे हैं। गाँव में ठाकुरों के लगभग 30 घर एक साथ थे और उसके एक तरफ़ यादव टोली, उसके पीछे बनिया और धोबियों के घर और सबसे पीछे गंदगी से बजबजाती जगह में चमरौटी। तब चमरौटी का पता गंदे और बदबूदार जगह से ही होता था, आज की तरह बाबा अंबेडकर की मूर्ति नहीं होती थी। कुनबी और कोईरी जातियाँ दूसरे तरफ़ बसी हुई थीं तो सबसे उपेक्षित और कमज़ोर तबक़ा मुसहरों का था जो गाँव से काफ़ी दूर बसे हुए थे। शादी हो या मरनी करनी, पत्तल मुसहर लोग ही बनाकर लाते थे, पुरवा इत्यादि कोंहार (कुम्हार) लोग बनाते थे। समाज में हर तबक़े का स्थान सदियों से निर्धारित था और उसमें किसी परिवर्तन की बात सोचना भी उस दौर में संभव नहीं लगता था।

उस समय खेतीबाड़ी अधिकतर ठाकुरों के पास ही थी,ये अलग बात थी कि कागज़ों पर ज़मींदारी प्रथा का उन्मूलन हो गया था। थोड़ी-बहुत ज़मीन यादव या कुर्मी लोगों के पास भी थी जिसमें वह लोग सब्ज़ी और थोड़ा गेहूँ चावल उगा लेते थे। ट्रैक्टर इत्यादि उस समय होते नहीं थे और खेती में बैल ही काम आते थे। लिहाज़ा ठाकुरों के हर घर में एक से दो जोड़ी बैल, कुछ गाय भैंस और उनके बच्चे। कुल मिलाकर हर घर में 6 से 12 जानवर थे और उनके सानी पानी (खाना-पीना) और देखभाल के लिए एक मजूर (मज़दूर) भी होता था। अधिकतर तो यह मजूर गाँव के ही चमरौटी से या अन्य निचली जात के लोग होते लेकिन कभी-कभी दूसरे गाँव से भी मजूर मिल जाते थे। जानवरों के गोबर से खाद बनती थी जो खेती में इस्तेमाल होती,हाँ बहुत साल बाद जब ईंधन की कमी होने लगी तो गोबर से ऊपरी (उपले) की पथाई भी शुरू हो गई।

अब ऐसे में किसी को कोई ऐसा लड़का मजूरी के लिए मिल जाता जो कहीं दूर का हो और दिमाग़ी रूप से भी कमज़ोर हो तो उसके भाग्य का कहना ही क्या। अब अपने दारोग़ा चच्चा भी ऐसे ही भाग्यवान थे जिसे चन्नर बचपन में ही मिल गया। किस गाँव का था और उसकी जात क्या थी, शायददरोगा चच्चा को ही पता थी। लेकिन यह हम लोगों को पता नहीं था और न कभी इसकी ज़रूरत ही महसूस हुई। लेकिन इतना तो था कि चन्नर बाहर के साथ-साथ घर के अंदरके काम भी करता था और इससे ये अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि उसकी जाति बहुत निचली नहीं थी। शुरुआती सालों में हमने चन्नर को सिर्फ़ मानसिक रूप से ही कमज़ोर देखा था, शारीरिक रूप से वह स्वस्थ और तंदरुस्त था। लगभग 12 जानवर थे दारोग़ा चच्चा के घर,सबका सानी पानी, गोबर, खेत पर काम और घर पर इनारा (कुआँ) से पानी काढ़ कर लाना, सब काम चन्नर के हीजिम्मे था। अक्सर तो वह हमें मुसकुराता हुआ ही दिखता लेकिन कभी-कभी उसके चेहरे से पता लगता था जैसे वह रोया हो और बाद में उसकी पिटाई की बात हमें पता चल जाती। कुछ बड़े होने पर ही हम लोगों को पता चला कि दारोग़ा चच्चा, जो हमें सिर्फ़ बड़ी-बड़ी मूँछों के चलते डरावने दिखते थे, वास्तव में बहुत ख़तरनाक आदमी थे। अगल-बगल के गाँव वाले भी उनसे भय खाते और चमरौटी तथा अन्य निचली जतियों में तो उनके नाम से लोग सिहर जाते।

गाँव में रहने के दौरान हमारे बाबा उनके कई क़िस्से सुनाते जिसमें अधिकतर उनके अत्याचार के ही होते थे, ये अलग बात थी कि उनको इसका कभी अफ़सोस नहीं होता था। कभी-कभी तो उनके आवाज़ में गर्व भी झलकता था जैसे दारोग़ा बहुत बड़े योद्धा हों। चमरौटी में सुबह-सुबह अगर उनकी आवाज़ सुनाई दे जाए तो मजाल नहीं थी कि वहाँ के मजूरा उनके खेत में काम के लिए नहीं पहुँचें। और उसके बाद जो भी दारोग़ा चच्चा दे दें, सब ठीक, कोई शिकायत करने की हिम्मत नहीं करता था। चमरौटी के पता नहीं कितने पुरुष उनके द्वारा पिटाई के बाद हफ़्तों शरीर पर हल्दी का लेप लगवाकरइलाज कराते थे और कितने ही लोगों के हाथ पैर उन्होने तोड़े थे। लेकिन न तो कोई पुलिस में शिकायत कराने की हिम्मत कर पाया और न ही प्रधान से। उस समय तो प्रधान भी ठाकुरों के ही घर से होते थे,बहुत बाद में जब प्रधानी का पद महिला और अनुसूचित जाति के लिए रिज़र्व हो गई तब भी सिर्फ़ नाम की अनुसूचित जाति की महिला प्रधान होने लगी, काम तो सब ठाकुर लोग ही करवाते थे। एक बात तो थी कि पहले वाले ठाकुर जब ग्राम प्रधान होते थे तो वह कम-से-कम अपने भाई और पटीदारों का कुछ लिहाज़ करते थे लेकिन जैसे-जैसे गाँवों में पैसा पहुँचने लगा, सारे रिश्ते नाते उसकी भेंट चढ़ने लगे। अब ठाकुरों में भी भैया, चाचा, बब्बा इत्यादि रिश्ते सिर्फ़ नाम के ही बचे, वास्तव में उनके अंदर की गर्माहट ख़त्म हो गई।

समय में एक सबसे अच्छी बात यह होती है कि वह जैसा भी हो, बीत जाता है। हमारे क्षेत्र में भी समय अपनी गति से बीतता गया,धीरे-धीरे विकास की किरण दस्तक देने लगी। पंचवर्षीय योजनाओं का असर धीरे-धीरे ही सही, हमारे गाँव और आसपास भी दिखने लगा। गाँव में पहले पक्की सड़क बनी, मोटर गाड़ियाँ चलने लगीं और अंततोगत्त्वा बिजली भी आ गई। कुछ बड़े जोत वालों के घर ट्रैक्टर भी आ गया था जो उसकी हैसियत में चार चाँद लगा देता था। इस विकास का असर दहेज़ पर भी पड़ा, पहले जहाँ शादियों में रेडियो और साइकल मिलना बड़ी बात होती थी,वहीं रेडियो की जगह पहले टू इन वन ने ली और फिर टी।वी सेट ने ले ली। टी।वी भी धीरे-धीरे स्वेत श्याम से रंगीन हुए और साइकल भी मोपेड, स्कूटर से होती हुई मोटर साइकल तक पहुँच गई। ट्रैक्टर आने के साथ सबसे बड़ा दुख हमें इस बात का हुआ कि अब गेहूँ की दंवाई (मंडाई) थ्रेशर से होने लगी। वरना पहले तो खलिहान में गेहूँ की फ़सल काटकर बिछा दी जाती और हम लोग बैलों द्वारा चलने वाले दंवाई मशीन पर बैठकर घूमा करते। गेंहू की दंवाई के साथ-साथ हमारी मौज भी होती थी।

ख़ैर इसी सिलसिले में एक और क़िस्सा अपने कल्लन बब्बा का है। गाँव के अधिकतर बड़े बुज़ुर्ग एकदम भोर में जग जाते थे और फिर उनका राम राम शुरू हो जाता था। उन्हीं में से एक थे कल्लन बब्बा जिनकी आवाज़ ऐसी ज़बरदस्त थी कि अगर गाँव के एक किनारे खड़े होकर आवाज़ लगाएँ तो गाँव के दूसरे किनारे तक उनकी आवाज़ साफ़ सुनाई पड़ती। गेंहू की दंवाईअक्सर गर्मी के चलते तड़के ही शुरू हो जाती, चारो तरफ़ सन्नाटा रहता और सिर्फ़ बैलों के गले की घंटियाँ ही सुनाई देती। बैल भी दो शब्दों को बख़ूबी समझते थे, एक तो चलने के लिए “चल” और दूसरा रुकने के लिए “होर रह।” अब कहा यह जाता था कि सबके खलिहान में बैल मशीन के साथ दंवाई के लिए लग जाते और फिर कल्लन बब्बा की आवाज़ से ही पूरे गाँव के बैल चलते और रुकते। वैसे इस क़िस्से में भी अतिशयोक्ति तो ज़रूर रही होगी लेकिन कम-से-कम अगल-बगल के चार छह खलिहान के बैल तो ज़रूर उनकी आवाज़ से ही काम करते रहे होंगे।

गाँव में आपसी रिश्तों को तोड़ने में दूसरा सबसे बड़ा कारण चकबंदी थी, पैसा तो सबसे पहला और निर्विवाद कारण था ही। जिन घरों ने कभी कोर्ट-कचहरी का मुँह भी नहीं देखा था, उनके घर का एक सदस्य अब कचहरी का नियमित मेम्बर हो गया। अब तमाम कामों में एक काम तारीख़ पर शहर की कचहरी जाना भी हो गया। कुर्ता पायजामा की जगह अब शर्ट पैंट ने ले ली और सुबह-सुबह अगर किसी को शर्ट पैंट पहने साइकल पोंछते देख लिया तो लोग समझ जाते थे कि कचहरी की तैयारी है। ये मुक़द्दमे अंतहीन थे और विरासत की तरह अगली पीढ़ी को पूरी ईमानदारी से अंतरित किए जाते थे। इसी बहाने गांवोंमे भी वकीलों की नई फ़ौज तैयार होने लगी और आपस के पैसे से ही सही, उनकी भी रोज़ी रोटी चल पड़ी।

इस विकास के साथ-साथ एक और घटना घटी जिसके बारे में हमें बहुत बाद में पता चला। एक साल गर्मी की छुट्टी में जब हम घर आए तो देखा कि चन्नर ठीक से चलनहीं पा रहा है। थोड़ी उत्सुकता हुई और उससे पूछा तो वह हँसकर रह गया। शायद बताना नहीं चाहता था या भय था, पता नहीं। लेकिन अपने घर पर बाबा ने बताया “एक दिन चन्नर गाय चराकर बहुत देर से लौटा और तब तकबाकी जानवरों के सानी पानी का समय बीत रहा था। ऐसे में दरोगाने ही जानवरों को नांद पर बाँधा और सानी पानी किया। फिर जैसे ही चन्नरवापस आया, बिना उससे कारण पूछे दरवाज़े पर पड़ी गोजी (लाठी) लेकर उसपर टूट पड़े और तब तक मारते रहे जब तक उसकी कमर और एक पैर टूट नहीं गया। चन्नर बाप बाप चिल्लाता रहा लेकिन कोई उसे बचाने नहीं आया। बाद में दारोग़ा ख़ुद ही डॉक्टर को बुलाए और थोड़ा-बहुत इलाज़ भी करवाया लेकिन मंदबुद्धि चन्नर फिर विकलांग भी हो गया।

इसे सुनकर ही हमारे रोंगटे खड़े हो गए कि कोई इनसान होकर ऐसा भी हो सकता है। ऐसे ही तमाम क़िस्से बाबा के पास होते थे जिसे वह हमको गाहे-बगाहे सुनाते रहते थे। इन्हीं क़िस्सों में बाबा का एक और क़िस्सा था कि एक बार तो उन्होने चमरौटी के एक आदमी को बल्लम मार दिया था और पूरे चमरौटी में किसी की हिम्मत नहीं पड़ी उसको बचाने की। बाद में ठकुराने के लोग पहुँचे और उसको बचाया, बस ग़नीमत यही थी कि वह ज़िंदा बच गया नहीं तो गड़बड़ हो जाता। दरअसल देश में उस समय हरिजन ऐक्ट लागू हो चुका था और बड़ी जातियों का दबदबा अब घटने लगा था। कुछ गाँवों में तो इसके चलते गिरफ्तारियाँ भी होने लगी थीं।

समय के साथ-साथ हम बड़े हुए तो चन्नर के चेहरे पर भी कुछ मूँछ दाढ़ी आई। वह ख़ुद को किसी तरह घसीटते हुए ज़िंदगी को भी घसीटता रहा। अब वह बहुत काम का नहीं रह गया था लेकिन फिर भी खेतअगोरने और गाय भैंस चराने जैसा काम अपनी समझ और हिम्मत के अनुसार करता रहता। गाहे-बगाहे दारोग़ा चच्चा से पिटना उसकी नियति में शामिल था और उसकी चींखे उस घर में मौजूद किसी भी पुरुष या महिला को विचलित नहीं करती थीं। वही महिलाएँ जो अपने बच्चों के बहते ख़ून देखकर अमूमन बेहोश होने लगती थीं, उनको चन्नर के बहते ख़ून और चीख़ से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था। कई बार तो बुरी तरह पिटने के बाद वह दो-तीन दिन तक अपनी टूटी खटिया पर पड़ा रहता। ऐसे में घर से जो कुछ रूखा-सूखा खाने को मिल जाता, उसी से अपनी साँसें जारी रखता। और अगर घर में किसी को दया आ गई तो चन्नर की दवा भी करा देता। फिर ठीक होते ही वह वापस अपने काम में ऐसे जुट जाता जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो। प्रतिरोध करना तो पशुओं को भी आता है और इनसान न करे, ऐसा हो ही नहीं सकता। चन्नर से भी जब उससे हो रही मारपीट की बात हम करते, तो उसके चेहरे पर कुछ पल के लिए तनाव आ जाता। लेकिन मानसिक और शारीरिक रूप से अपंग चन्नर के लिए इससे ज़्यादा प्रतिरोध कर पाना संभव भी नहीं था। एक चीज़ जो बड़े होकर बहुत परेशान करती थी वह यह थी कि हमारे गाँव में बहुत से लोग पढ़ लिखकर अच्छे पदों पर आ गए थे, लेकिन किसी को भी चन्नर के लिए दारोग़ा चच्चा से कुछ कहते नहीं सुना। उल्टा उसकी पीड़ा में रस लेने वाले ज़रूर बढ़ गए थे।

जीवन का एक पहलू यह भी है कि समय के साथ-साथ उनसे भी लगाव हो जाता है जिससे नफ़रत का ही रिश्ता रहा हो। और यही हुआ चन्नर के साथ भी, उसे दारोग़ा चच्चा के घर के अलावा और किसी जगह अच्छा नहीं लगता। अब शरीर की तो अपनी केमिस्ट्री होती है और चन्नर की बढ़ती उम्र के साथ-साथ उसके शरीर की ज़रूरत भी पैदा होने लगी। दरअसल चमरौटी की बहुत सी महिलाएँ काफ़ी हंसोड़ और मज़ाकिया थीं और उनको चन्नर को छेडने में मज़ा आता था। वैसे भी चन्नर से ठकुराने की औरतें तो चाहकर भी मज़ाक नहीं कर सकती थीं, वह उनका मजूर जो ठहरा। ऐसे में उसको चमरौटी से जोड़कर कई क़िस्से बन गए, हालाँकि मुझे कभी भी उन क़िस्सों पर भरोसा नहीं हुआ। गाँव में कई लोग उसे छेड़ते भी कि चन्नर फ़लाने से बियाह कर लो लेकिन वह अपनी अस्पष्ट आवाज़ में इनकार कर देता।

साल दर साल बीतते रहे, हर गर्मी की छुट्टी में चन्नर एक साल में ही दस साल बूढ़ा दिखने लगता। लेकिन मिलने पर वही मुस्कराहट और “कइसन हो भैया” जारी रहा। अब उसका चलना फिरना बहुत कठिन हो गया था और दिखाई देना भी काफ़ी कम लेकिन ज़िंदगी से उसका लगाव कभी कम नहीं दिखा। दारोग़ा चच्चा भी अब बढ़ती उमर का शिकार हो रहे थे लेकिन अभी भी अपने सब काम करते रहते। गाँव में विकास बढ़ता रहा, घर और खेत छोटे होते गए और लोगों के इगो विकास से भी दोगुनी रफ़्तार से बढ़ते रहे। अब गाँव जाने पर सबके घर-घर जाने का उत्साह पहले जैसा नहीं था, आपसी रिश्तों के बीच एक ठंडापन नज़र आने लगा। ऐसे ही एक साल दारोग़ा चच्चा के दरवाज़े पर चन्नर नहीं दिखा तो चिंता हुई। पूछने पर पता चला कि अब उससे चला फिरा नहीं जाता है और उसे दिखाई भी नाममात्र ही देता है। यह पता चलने पर कि वह कुन्बियाने के तरफ़ के खेत पर गया है, मेरे क़दम अपने-आप उधर मुड़ गए। मन में एक बात लगातार चल रही थी कि चन्नर मुझे पहचान पाएगा कि नहीं। खेत के सामने पहुँचते ही चन्नर एक झोलंगी खटिया पर बैठा दिख गया, उसके हाथ में एक पतला-सा डंडा था और वह आहट आने पर आवाज़ की तरफ़ देखते हुए कुछ बोलने लगता।

मैं उसके सामने जाकर खड़ा हो गया और मेरी आहट मिलते ही चन्नर ने बुदबुदाते हुए कहा “देखत हुई।” मुझे थोड़ा समय लगा उसका कहा समझने में लेकिन फिर बात समझ में आते ही दिल भर आया। एक देख पाने में असमर्थ व्यक्ति देख लेने का दावा कर रहा है, और समाज के कर्णधार जिन्हें सब दिखता है, वह जानबूझ कर अंधे बन रहे हैं। कुछ पल बाद जैसे ही मैंने उसे आवाज़ दी, उसके चेहरे पर वही पुरानी मुस्कराहट खिल गई और उसने अस्पष्ट शब्दों में कहा “कइसन हो भैया।” कुछ देर वहाँ खड़ा रहने के बाद मैं भारी क़दमों से वापस आ गया लेकिन मन में कुछ चुभ गया।

वैसे इस बार घर पर बब्बा ने बातचीत के दौरान एक बात बताई थी जिसको सुनकर मुझे बेहद सुकून हुआ। गाँव में कई लोगों ने दारोग़ा चच्चा से कहा कि अब चन्नर को काहे घर पर रक्खे हो,बनारस जाकर गंगा के घाट पर क्यों नहीं छोड़ देते, वहीं भीख माँगकर पड़ा रहेगा। लेकिन दारोग़ा चच्चा ने उनको पलटकर ऐसा जवाब दिया कि लोगों की बोलती बंद हो गई “अइसन हौ, आपन पूरा उमर चनरा हमरे यहाँ काम कइले हौ, अब ई ससुर यहीं मरी। घरे के कुक्कुर बिलार से भी लगाव हो जाला, ई त तब्बो इनसान हौ।” मैं इसके बाद बहुत देर तक मानव स्वभाव के पेंचीदगियों में उलझा रहा, कहाँ इसी चन्नर को दारोग़ा चच्चा जानवर की तरह पीटते थे और कहाँ उसी को घर पर ही रक्खे जब तक वह ज़िंदा रहा।

एक सेवानिवृत्त व्यक्ति का सबसे बड़ा दुख होता है उसकी पहचान का ख़त्म होना, उसकी कुर्सी के साथ जुड़ी इज़्ज़त का समाप्त हो जाना। कुछ यही हो रहा था हमारे गाँव में भी, फ़र्क़ बस इतना था कि गाँव पर ठाकुरों की झूठी और भयवश होने वाली इज़्ज़त अब धीरे-धीरे कम हो रही थी। सूबे में सरकार बदलने से पिछड़े और कमज़ोर तबक़े के लिए, कागज़ों पर ही सही, तमाम योजनाएँ आने लगीं और बहुत से गाँव “अंबेडकर ग्राम” बन गए। हमारा गाँव भी इस लहर से अछूता नहीं रहा और वह भी इसीका हिस्सा बन गया। जिस चमरौटी में एक भी पक्का घर नहीं था, वहाँ अब सरकारी मदद से कुछ पक्के मकान खड़े होने लगे। गाँव से लगभग 10 किमी दूर एक बैंक की शाखा भी खुल गई और बहुत से पिछड़े लोग जो कभी ठाकुरों और बनियों के सामने आर्थिक मदद के लिए हाथ फैलाते थे, वह लोग कुछ दलालों के मार्फत बैंक से लोन लेने लगे। आरक्षण का, सीमित ही सही, फ़ायदा दिखाई पड़ने लगा और गाँव के चमरौटी के एक-दो घर के लड़के अब सरकारी मुलाज़िम बन गए। अब धीरे-धीरे ठाकुरों का दबदबा कम हो रहा था और उनके सामने हाथ जोड़कर खड़े रहने वाले और उनकी बेगारी करनेवाले अब कम होते जा रहे थे। दारोग़ा चच्चा का भी यही दर्द था, किसी समय उनके सामने जिनके मुँह से बकार भी नहीं निकलती थी, अब उन्हीं लोगों के लड़के उनके सामने खटिया से भी खड़े नहीं होते थे।

अगले कुछ सालों तक मैं गाँव जाता रहा, आर्थिक परिवर्तन का असर दिखाई पड़ने लगा था। अब गाँव के ठकुराने के कुछ लोग भी चमरौटी में चाय पानी पीने लगे और एक-दो घरों की शादियों में भी आना-जाना होने लगा (उन्हीं घरों में जो सरकारी मुलाज़िम बन गए थे)। एक और चीज़ ने इस भेदभाव को दूर करने में बहुत बड़ा काम किया था और वह थी अमूमन हर गाँव में बनने वाली देशी शराब। अक्सर इस शराब की भट्ठी चमरौटी या ऐसे ही इलाक़ों में ही होती और उसे पीने वालों में कोई सामाजिक भेदभाव नहीं दिखाई पड़ता। ख़ैर अब आपसी भेदभाव काफ़ी कम होने लगा और ऐसे में दारोग़ा चच्चा जैसे पुरानी सोच के लोगों का दुखी होना लाज़मी था। फिर एक बार गाँव जाने पर पता चला कि चन्नर गुज़र गया। बाबा ने बताया कि उसका अंतिम संस्कार दारोग़ा चच्चा ने हिंदू रीति रिवाज़ों के हिसाब से किया और उसकी आत्मा की शांति के लिए कुछ पंडितों को भी खिलाया। चन्नर के गुज़र जाने के बाद उनके दरवाज़े पर फिर कोई मजूर नहीं आया, दरअसल अब मजूर मिलना संभव भी नहीं था। चमरौटी के लोग या तो शहर जाकर मज़दूरी करने लगे थे या साड़ी की बुनाई। अब चमरौटी में भी मोटर साइकल और टी।वी आ गए थे और दारोग़ा चच्चा ने उधर जाना छोड़ दिया था। इसी तरह समय आगे बढ़ता गया और एक दिन ख़बर मिली कि दारोग़ा चच्चा भी दुनिया से कूच कर गए। और एक ऐसे क़िस्से का अंत हो गया जिसे हमारी आने वाली पीढ़ी क़िस्से कहानियों में तो शायद कभी पढ़ लेगी लेकिन उसपर भरोसा नहीं कर पाएगी।